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Sujit Kumar Lucky's Blog (5)

अंग प्रदेश की भागीरथी ! !

"आज कुछ भाव अनायास मन में उठे !


इस कविता का संदर्भ : मैं गंगा किनारे बसे अंग प्रदेश से हूँ ..
और अभी यमुना नदी के शहर दिल्ली में रह रहा हूँ !
कुछ भाव इस प्रकार है ..जीवन यात्रा भागीरथी तट से कालिंदी तट तक की बयाँ है ! "
अंग प्रदेश की भागीरथी को ..
मोड़ लाया कालिंदी के संग !




कभी कल कल बहती वो जहान्वी,
वेग उफान कभी सहती बहती…
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Added by Sujit Kumar Lucky on April 16, 2011 at 12:00am — 1 Comment

और तभी सुनामी आती है !



है दंभ अब किन बातों का !
आंखे फाड़े काली रातों का !


विकट जो चुप्पी छाती है,
और तभी सुनामी आती है !


बौने से जो अब पेड़ खड़े,
साधी चुप्पी से मौन धरे !
ऐसी ऊँची झपटे मन को विकल कर जाती है!
और तभी सुनामी आती है !


देख अवयव अब मिश्रण का,
जो कहीं चूक हो जाती है ...
जीवन तरंग रेडियो सी बन जाती है !


भरते थे हुंकार शक्ति का,
हाथों…
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Added by Sujit Kumar Lucky on March 18, 2011 at 9:06am — No Comments

आज देखा हमने तिरंगे का बस दो रंग अपने चेहरे पर !

क्यों संसद खामोश और ट्विट्टर चिल्ला रहा ,


क्या बदनसीबी थी हमारी,
हमारा ही रोकेट, हमारे ही घर को जला गया कहीं !


100 मेडल्स जीते हमने इस बार पर,
100 करोड़ की कीमत चूका गया कोई !


ये कैसी विकास गंगा बहा दी अपने देश मे ,
अपने ही लोगो का खून सूखा गया कोई !


ये कैसी छाई है…
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Added by Sujit Kumar Lucky on January 26, 2011 at 9:30am — 6 Comments

यादों के पत्ते यूँ बिखरे परे है जमीं पर



यादों के पत्ते यूँ बिखरे परे है जमीं पर ,

अब कोई खरखराहट भी नही है इनमे,

शायद ओस की बूंदों ने उनकी आँखों को

कुछ नम कर दिया हो जैसे ...

बस खामोश से यूँ चुपचाप परे है ,

यादों के ये पत्ते ...



जहन मे जरुर तैरती होगी बीती वो हरयाली,

हवायें जब छु जाती होगी सिहरन भरी ..

पर आज भी है वो इर्द गिर्द उन पेड़ों के ही ,

जिनसे कभी जुरा था यादों का बंधन ..



सन्नाटे मे उनकी ख़ामोशी कह रही हो जैसे,

अब लगाव नही , बस बिखराव है हर पल… Continue

Added by Sujit Kumar Lucky on December 4, 2010 at 1:54am — No Comments

उलझते सुलझते बातें जिंदगी के

ये रात शर्त लगाये बैठे है नजरे बोझिल करने की..

और हम ख्वाब सजाने की बगावत कर बैठे है ...



(वक्त के खिलाफ ये कैसी कोशिश ! ! )



यूँ भागती कोलाहल जिंदगी मे ..

कहाँ थी कोई ख़ामोशी..

हम छुपते रहे , पर वो वजह थी..

आखिर मुझे ढूंड ही लिया उसने ! !



(ये कैसी ख़ामोशी. थी ! ! )



राह बंदिशे से निकल कर चलने दे एक कारवां ...

वक्त की हाथो न रुक जाये एक खिलता हुआ जहाँ ..



(रोको न इसे खिलने से ! ! )



शिकन न दिखे इन चेहरों मे… Continue

Added by Sujit Kumar Lucky on November 25, 2010 at 11:30pm — No Comments

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