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VIRENDER VEER MEHTA's Blog – August 2015 Archive (2)

दर्द (लघुकथा)

"दामादजी को छोड़ना चाहवे है, अरे! पति बिना भी कोई जगह होवे है औरत की।" पति को छोड़ मायके आयी बेटी को माँ समझाना चाह रही थी।

"माँ! मैं कोई भी काम कर अपनी बच्ची पाल लूँगीं लेकिन अब वापिस नही जाऊँगी।"

"ये क्या कह रही है तु छोरी, ऐसा आखिर क्या हो गया?"

बस माँ। मैं 'उस नशेबाज' को और बर्दाश्त नही कर सकती, सारा दिन बस पीना, हंगामा करना और.......।"

"तो क्या हुआ छोरी, तेरा बापू न पिये, मैंने तो न छोड़ दिया उसे।" माँ ने कुछ तमक कर बेटी की बात काट…

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Added by VIRENDER VEER MEHTA on August 23, 2015 at 11:00am — 13 Comments

उलझन - लघुकथा

"उलझन"

"क्या करने गया था उधर मंदिर की सीढ़ियो पर!"

"अभी साल भर पहले जो हुआ शहर में, याद नही!

"हाजी का बेटा होकर काफिर वाला काम!"

"चंद रोज पहले गुजरे अपने अब्बा के नाम का भी नही सोचा।"

"इस बार तो बीचबचाव हो गया, कोई फसाद हो जाता तो!".........

सभी हमदर्द अपनी अपनी कह चल दिये और वसीम आ खड़ा हुआ अपनी उलझन लिये अब्बु की तस्वीर के सामने।

"कैसे कहूँ अब्बा मैं इन लोगो से कि कल तक मस्जिद की अजान से मोहब्बत करने वाला आज मंदिर से आती आरती की आवाज से भी प्यार करने लगा है।… Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on August 11, 2015 at 5:34pm — 6 Comments

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