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अभावको कसौडी बसाली

अनुभवको प्रमाण-पत्र जलाई

भित्री हड्डीको ढुङ्ग्रोले फुssफुss गर्दै   

धेरै बेर उसले आकाक्षाको ढुंगा पकायो ।

पाक्छ किन नपाक्ने भन्दै आफ्नै मन बुझायो ।। 

 

गल्न त दाल पनि गल्छ

गल्न त मन पनि गल्छ 

भरिएर गरिवीको आहत सहे पछि 

जल्न त मन पनि जल्छ

जल्न त तन पनि जल्छ  

 

उस्ले पनि भोगाइको राप बनाएकै हो ।

व्यथाको भुङ्गोमा आफैलाई डुवाएकै हो ।  

 

डकनी उघार्यो

दु:खमा उम्लिएको पानी नियाल्यो ।

सन्टुष्ठीको एक घुटको थुक निल्यो ।। 

बिचरा !

ऊ संगै थुक बाहेक निल्न लायक केही थिएँन । 

 

भरोसाको सानो बार लगायो

आशाको अगुल्टोलाई ठोस् ठास गर्‍यो  

पीडा रुपी  धुवाको गुम्वजमा ढुंगा पाक्ने सपना फूल्न थाल्यो ।

प्रतिक्षाको एक सरो आवरण फेरि मनभित्र ढाक्न उद्धेलित भयो ।  

 

पाक्न त चामल पनि पाक्छ ।

पाक्न त हृदय पनि पाक्छ ।।  

रातले उषाको किरण भेट्दासम्म न गले पछि 

थाक्न त भरोसा पनि थाक्छ ।

थाक्न त आशा पनि थाक्छ ।।          

 

ओदानलाई कुनोतिर मिल्कायो ।

तातो नपाकेको गरिवीको ढुंगालाई पटुकीमा बेर्यो । 

कठै !

उसले त्यहि तातोपनलाई पेटमा सेकाएर रातभर /दिनभर निदायो ।।     

 

बसन्त कुमार श्रेष्ठ 'क्षितिज'

मिति:०६८-०३-२०

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Replies to This Discussion

आहा ! मैले उता त देखेको जस्तो लागेन यो कविता । साह्रै मिठो लाग्यो ।

पाक्न त चामल पनि पाक्छ ।

पाक्न त हृदय पनि पाक्छ ।।  

रातले उषाको किरण भेट्दासम्म न गले पछि 

थाक्न त भरोसा पनि थाक्छ ।

थाक्न त आशा पनि थाक्छ ।।
धन्यवाद आनन्दजी ।
बेस्सरी ओजनदार कविता पस्कनु भयो, बशन्तजी , साँच्चै नै यो कविता भित्र ऐना छ गरीबीले ग्रस्त धेरै देशका जनताहरुको / बधाई छ /
हार्दिक धन्यवाद आवाजजी ।

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