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ओ बी ओ लाइव महा उत्सव अंक-69 में प्रस्तुत रचनाओं का संकलन

श्रद्धेय सुधीजनो !

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-69, जोकि दिनांक 09 जुलाई 2016 को समाप्त हुआ, के दौरान प्रस्तुत एवं स्वीकृत हुई रचनाओं को संकलित कर प्रस्तुत किया जा रहा है.

इस बार के आयोजन का विषय था – "रिमझिम".

 

पूरा प्रयास किया गया है, कि रचनाकारों की स्वीकृत रचनाएँ सम्मिलित हो जायँ. इसके बावज़ूद किन्हीं की स्वीकृत रचना प्रस्तुत होने से रह गयी हो तो वे अवश्य सूचित करेंगे.

 

सादर

मिथिलेश वामनकर

मंच संचालक

(सदस्य कार्यकारिणी)

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1.आदरणीया नयना(आरती)कानिटकर जी

 टिपटिप टूप टूप (छंदमुक्त)

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रिमझिम की बौछारों में

नाच रहे खुश होकर मोर

बूँदो के शितल संगीत में

हरियाली फैली चारों ओर

टिपटिप टिपटिप टूपटूप टूपटूप

 

ये पुरवाई,बूँदो की रिमझिम

यादों मे जब आता कोई

संगीत उठा हे मद्दम मद्दम

ताल सुरों सा बजता कोई

टिपटिप टिपटिप टूपटूप टूपटूप

 

मन का संयम डगमग डोले

फूलों सा हँसता हे कोई

हौले हौले आँचल डोले

मन मंदिर मे बसता कोई

टिपटिप टिपटिप टूपटूप टूपटूप

 

आओ! हम-तुम मिलकर

संग संग बरखा के नाचेंगे

फ़िर निकल कर आँगन में

संग गीत मल्हार के गाएंगे

टिपटिप टिपटिप टूपटूप टूपटूप

 

हायकू (द्वितीय प्रस्तुति)

 

बूँदो के गीत

रिमझिम के संग

नाचे सावन---१

 

वर्षा जो आई

रिमझिम के संग

धरा खिलती---२

 

मन मुदित

रिमझिम के संग

अंकूर फूटे---३

 

मेघ गरजे

रिमझिम के संग

जल संगीत---४

 

धरा बुलाए

रिमझिम के संग

आओ नदिया---५

 

मन हर्षित

रिमझिम के संग

ढोल बजाए---६

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2.आदरणीय मनन कुमार सिंह जी

गजल

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आ जाती चलकर मेरे पास रिमझिम

छा जाती बनकर के अहसास रिमझिम।

 

बिसरे-भूले क्षण की बातें भली जो

दुहराती कानों में कुछ खास रिमझिम।

 

गरजे हैं बादल बस अब तक यहाँ पर

फल जाती बनकर संचित आस रिमझिम।

 

सूखे अधरों की सुनकर के कथा वह

भर जाती उर में चंचल श्वास रिमझिम।

 

धरती का हियरा यूँ भरसक जुड़ाता

अंबर से झरती बनकर रास रिमझिम।

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3.आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी

रिसती छत (गीत)

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झूले कहीं ,कहीं मेले हैं

कहीं बजें सावन के गीत

वो तकती घर की रिसती छत ,नहीं उसे रिमझिम से प्रीत

 

गीली लकड़ी डीठ बनी है

धुआं धुआं आँखों में भरती

उसकी कच्ची जर्जर खोली

सावन की आहट से डरती

टप टप की लोरी सुन रातें ,जाती आँखों में हीं बीत

वो तकती घर की रिसती छत ,नहीं उसे रिमझिम से प्रीत

 

ना झूले ना हंसी ठिठोली

ना कोई सपने हैं मन में

चोली आँचल दिन भर भीगा

सावन अगन नहीं है तन में

सूखी लकड़ी सूखा कोना ,बस हैं ये ही उसके मीत

वो तकती घर की रिसती छत ,नहीं उसे रिमझिम से प्रीत

 

जैसे ब्याज महाजन का हो

बूँदें यूं बढ़ती ही जाएं 

फ़ैल रही हैं कोने कोने

जुल्मी जैसे  राज बढ़ाएं

इधर उधर बर्तन रखती पर, होती बूँदों की ही जीत

वो तकती घर की रिसती छत, नहीं उसे रिमझिम से प्रीत

 

कुंडलियाँ छंद (द्वितीय प्रस्तुति)

भर कर जल लो आ गए ,मेघ मचाते शोर

कहता मन चल भीग ले ,तज लिहाज की डोर

तज लिहाज की डोर ,आज हैं वर्षा  लाये

कल  जाने किस ओर, पवन इनको ले जाये

रिमझिम तेरे द्वार ,सोच मत हो ले अब तर

कल की कल पर छोड़ ,भूल जा खुद को पल भर

 

कुकुभ छंद (द्वितीय प्रस्तुति)

रिमझिम का सन्देश सुनाने ,उमड़ घुमड़ आये मेघा

हरी चुनरिया लेकर आये ,धरती को देने मेघा

कहीं गरज कर रुक जाते हैं ,कहीं बरस जाते मेघा

कभी कुपित हो फट जाते फिर ,बर्बादी लाते मेघा

 

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4. आदरणीय कलिप्रद प्रसाद मंडल जी

विषय आधारित प्रस्तुति

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रिमझिम रिमझिम बरस रहा है, वर्षा के ये बादल

उमड़ घुमड़ कर घूम रहा है, आषाढ़ के ये बादल |

            

चम् चम् चम् विजली चमकी, कभी कभी गरजे बादल

प्यासी धरती तृप्त हो गई, ताल में खिले हैं कमल |

 

घन घोर देख मोर-मयूरी नाचे, कोयल बोले मीठी बोली

बारिश में नृत्य करती पिया की, भीगी घाघरा चोली |

 

रिमझिम रिमझिम बरस रही है,  सावन की ये लड़ियाँ

झूम झूम कर नाच रहे हैं मस्त, गावं के लड़के लडकियाँ |

 

हाथ में छाता पीठ में वस्ता, चले स्कुल सब बच्चे

पानी छिड़कते एक दुसरे पर, किन्तु मन के हैं सब सच्चे |

 

रिमझिम रिमझिम बरस रहा है, सावन के ये बादल

विरहिणी के ह्रदय आँगन में, उठा अनंग का हलचल |

 

तोता मैना बैठे हैं डाल पर, घोंसला उनका गया टूट

आशियाना चाहे रहे न रहे, उनका प्यार है सदा अटूट |

 

खेत में हल चला रहे किसान, करना है धान की रोपाई

मस्ती में बैठा हैं दूकान में, गावं के गंगाराम हलवाई |

 

रिमझिम रिमझिम वर्षा में, नहीं रूकती फुटबल का खेल

दुनियाँ भरमें सब को प्रिय, नहीं है कोई इसका मेल |

 

नौकायन से नाविक करते, हर पथिक को नदी पार

बच्चे चलाते कागज़ के नाव, जल भरे आँगन के आरपार |

 

रिमझिम हाइकू

=============

 

ग्रीष्म समाप्त

पावस आगमन

मेघ गर्जन |

 

पछुआ हवा

चमक बिजली की

घन धमकी

 

श्री गणेश है

रिमझिम बारिश

प्रणाम ईश

 

अँधेरी रात

बूंद बूंद बरसे

पिया तरसे

 

मेघ नाद से

झम झम गिरते

ताल भरते

 

जल प्लावन

ज्यूँ बादल फटते

क्लेश बढ़ते

 

धरती खुश

रिमझिम ज्यों होते

प्यास बुझते

 

वर्षा ऋतू में

फैलती हरियाली

हँसते माली

 

हें घन राज

रिमझिम बरसो

सदा बरसो

 

अभी इतना

आना तुम फिरसे

अभी नमस्ते

 

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5. आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी

ग़ज़ल

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आ ही गया बरसात का मौसम अर्श पे बादल छाए हैं ।       

देख के बारिश रिमझिम रिमझिम  याद हमें वह आए  हैं ।

 

सर्द हवा के झोंके उस पर बरसे पानी भी रिमझिम

आ भी जाओ तन में शोले बारिश ने भड़काए है ।

 

धनवानों के पक्के घरों को आंच नहीं आई लेकिन

रिमझिम बारिश ने गुरबा के ही कच्चे घर ढाए हैं ।

 

जम कर बरसो काली घटाओं रिमझिम से क्या है होना

प्यासे परिंदे प्यासे इन्सां प्यासे सब चौपाए हैं ।

 

इतना करम कर बरखा रानी चाहे बरस तू रिमझिम ही

चेहरे किसानों के खेतों को देख के ही मुरझाए हैं ।

 

कैसे यक़ीं हम कर लें रिमझिम बारिश में आ जाओगे

पहले भी वादों पे भरोसा कर के धोके खाए हैं ।

 

ईद के दिन तस्दीक करम तो देखो रिमझिम बारिश का

जो भी मिलने आए हैं वह भीगी छतरी लाए हैं ।

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6. आदरणीय डॉ. टी आर शुक्ल जी

रूठा सावन (अतुकांत)

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प्रतीक्षा,

तुम्हारे आने की।

सचमुच, है त्रासदायी ।

रिमझिम बरसते सावन में,

उत्साह अनुत्साह के झोकों से

मन की आवृत्तियाॅं आज,

फिर, हैं  मुरझायी !

वर्षों से संचित,

विश्वास  का सागर

नैराश्य  की प्रचंड ऊष्मा से

बस, सूखने को है।

आशा  की किरणें

अब,

द्रगजल को,

कहती हैं मृगजल ।

विछोह का  कालान्तर

करता है छिन्न भिन्न,

अन्तर को, निरन्तर।

होगे तुम पुजारी ! 'सत्य' के ,

पर तुम्हारे, इस

‘सत्य‘ की उपासना ने

हमें , पल पल ,

कष्ट ही तो दिया है....!!!

तुम्हारे,

अनूठे साम्राज्य में

हम,

सुख की परिभाषा भूल बैठे हैं।

आश्चर्य  तो यह है प्रिय,

कि आप,

हमसे अब भी रूठे हैं ! !

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7. आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी

गीत

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मन के गगन पे आकर

बरसा रहे फुहारें

बादल ये कारे छाकर

 

कोई उन्हें बताये

लम्बी डगर नहीं है

मदहोश हो रहे हम

उनको खबर नहीं है

कह दो कि आ भी जाएं

शिकवे सभी भुलाकर

 

कैसे उन्हें बताएं

आँखें तरस रही हैं

तन को भिगोती बूँदें

रिमझिम बरस रही हैं

पल कौनसा न जाने

ले जाएगा बहाकर

 

बादल बरस रहे हैं

कोयल भी गा रही है

रह-रह के दिल किश्ती

अब डगमगा रही है

देखो न डूब जाए

सब कुछ युहीं लुटाकर.

 

कुण्डलिया (द्वितीय प्रस्तुति)

======================

 

बूँदे लेकर रसभरी , वसुधा को महकाय |

क्या है मन में मेघ के, कोई समझ न पाय ||

कोई समझ न पाय, किसे यह तर कर देगा,

कब तोड़ेगा आस, कहाँ जाकर बरसेगा,

नीरद करे निराश, न मन को सपने देकर,

बरसे रिमझिम नित्य, नृत्यरत बूँदे लेकर || 

 

 

बेसुध घन बरसा रहे, वहीँ अनवरत नीर |

जहाँ ह्रदय घायल पडा, सहता है नित पीर ||

सहता है नित पीर, विरह का पाला लेकर,

ख़ुशी गई है लौट , जिसे बस आँसू देकर,

उसे नहीं है काम, भिगोये क्योंकर वह तन,

छोडो उसका धाम, इसी क्षण ओ बेसुध घन ||

 

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8. आदरणीय पवन जैन जी

हाइकू

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(1)

शुभ प्रभात

रिमझिम बारिश

हुलसा मन

(2)

जलज मेध

झमाझम बरसे

सूखा आंगन

(3)

पावस बूँदें

कोंरी दोपहरिया

लरजे तन

(4)

सामंती रोब

जल भरे बदरा

गिरे धड़ाम

(5)

उच्छृंखलता

तोड़ती तटबंध

निर्लज्ज नदी

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9. आदरणीय सुधेंदु ओझा जी

चन्दन सा महका कर मन को बरसे काले मेह (गीत)

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चन्दन सा महका कर मन को

बरसे काले मेह

बूँद-बूँद में व्यथा समेटे

दहके कोई देह

 

हर आहट के धोखे ने

मुझको तहस-नहस कर डाला

सूनी वेदी पर खड़ी रही मैं

लिए हाथ में वर की माला

आएगा कि नहीं? हृदय में

उठते सौ संदेह

 

चन्दन सा महका कर मन को

बरसे काले मेह

बूँद-बूँद में व्यथा समेटे

दहके कोई देह

 

प्यास प्रेम की वो पहचाने

जो रोम-रोम से प्यासा हो

नट-नागर से कहीं अधिक

जो, राधा सा दीवाना हो

रक्त-शिरा में जिसके

बहता निर्मल स्नेह

 

चन्दन सा महका कर मन को

बरसे काले मेह

बूँद-बूँद में व्यथा समेटे

दहके कोई देह

 

प्रियतम नेह झलकती आँखें

सम्मोहित कर जाती हैं

तृप्ति मिले जो उनको मुझसे

सौ बार मिटूँ समझाती हैं

इस कारण ही हुई सखी मैं

तज कर देह, विदेह

 

चन्दन सा महका कर मन को

बरसे काले मेह

बूँद-बूँद में व्यथा समेटे

दहके कोई देह

 

रिम-झिम बूंदों की

फुहार है

दहकी-दहकी,

मृदु बयार है

अंक सिमट घुल जाऊँगी-मैं,

पाकर उनका गेह

 

चन्दन सा महका कर मन को

बरसे काले मेह

बूँद-बूँद में व्यथा समेटे

दहके कोई देह

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10. आदरणीय मुनीश तन्हा जी

ग़ज़ल

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आंसू बारिश बरसे रिमझिम

दिल की पीड़ा कहते रिमझिम

 

बादल भी तो बस तरसाता

तकते हम भी रहते रिमझिम

 

काफ़ी , बिस्कुट सब फीके हैं

टुक-टुक ये भी ताके रिमझिम

 

मन का पंछी कब नाचेगा

सोंचू बैठा मैं भी रिमझिम

 

बहते पानी  जैसा  जीवन

सुख - दुख दोनों करते  रिमझिम

 

दिल जख्मी है आँखे घायल

लेकिन फिर भी सहते रिमझिम

 

पौधों पे हरियाली छाये

मिटटी महके गाए रिमझिम

 

द्वीतीय प्रस्तुति

 

रिमझिम जब बरसातें होंगी

तेरी ही बस बातें होंगी

 

भीगी जुल्फे ताज़ा चेहरा

कैसी ये सौगातें होंगी

 

तेरी यादें फूलों जैसी

खुश्बूतर ये रातें होंगी

 

में भी तो हूँ तेरे कारण

हर सू ये ही बातें होंगी

 

यादों का जब मौसम होगा

तन्हा वो बारातें होंगी

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11. आदरणीय सचिन देव जी

कुंडलियाँ

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               ( १ )

शीतलता तन को मिले, मन गाये मल्हार

जब छाये काली घटा, रिमझिम पड़े फुहार

रिमझिम पड़े फुहार, तन-बदन भीगा जाये

कोयल गाये गीत, पपीहा भी इठलाये

झुलसाता आषाढ़, बदन लगता था जलता     

बूंदों की बौछार, बढ़ाती है शीतलता

              ( २ )

हलकी रिमझिम का मजा, तब आता है यार

नभ में हों काली घटा, और दिवस रविवार

और दिवस रविवार, साथ हों चाय पकोड़े

खायें बारम्बार,   ब्रेक ले-लेकर थोड़े 

जीले जीवन आज, छोड़ दे चिंता कलकी

गोद उठाकर नाच, अगर बीबी हो हलकी

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12. आदरणीय ब्रिजेन्द्र नाथ मिश्र जी

मन मेघों संग आवारा बन गया (गीत)

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आई बरखा बहार, बरसे रिमझिम फुहार,

मन झूमा, मेघों संग आवारा बन गया।

 

मिट्टी थी गर्म, बूँदें बरसी जब उसपर,

सोंधी धरती हुई, खुशबू फ़ैली घर - घर।

बादल छाये पहाड़ों पर, बरसा प्रेम अपार।

आई बरखा बहार, बरसे रिमझिम फुहार।

तन पुलकित, पहाड़ों संग न्यारा बन गया।

मन झूमा, मेघों संग आवारा बन गया।

 

पत्तों पर बूँदें पड़ती हुई, सरकती सर - सर,

फूलों का पराग झरता रहता झर - झर।

बृक्ष नहाकर हुए ताज़ा, छाया हरित संसार।

आई बरखा बहार, बरसे रिमझिम फुहार।

रोम उल्लसित, बूंदों संग सहारा बन गया।

मन झूमा, मेघों संग आवारा बन गया।

 

वर्षा का पानी, प्रवाहित, सरित निर्झर।

कूपों, तालाबों को, पूरित करता, भर - भर।

पथ धूल को धोता, निर्मल, रहित - विकार।

आई बरखा बहार, बरसे रिमझिम फुहार।

ह्रदय प्लावित, सरिता संग धारा बन गया।

मन झूमा, मेघों संग आवारा बन गया।

 

पर्वत शिखर पर, मेघ नाद पर, नृत्य निरंतर,

नदियों का जल श्रोत बना, अधः गमन कर।

दौड़ी जाती सागर संग, करने अभिसार।

आई बरखा बहार, बरसे रिमझिम फुहार।

अंतर उल्लसित, तटिनी संग किनारा बन गया।

मन झूमा, मेघों संग आवारा बन गया।

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14. आदरणीय डॉo विजय शंकर जी

धीरे धीरे , रिमझिम रिमझिम ( अतुकांत)

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धीरे धीरे रात भर

बूँद बूँद बरसा पानी ,

सुबह धुला हुआ

खिला खिला सा शहर ,

न कहीं कोई जल-भराव ,

न कोई उफनता सैलाब

सोंधी भीनी ख़ुश्बू बिखेरती

तृप्त होती वसुंधरा।

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हल्की हल्की फुहारें ,

रिमझिम सी बूँदें ,

जब पड़तीं हैं मुंह पर ,

याद दिलातीं हैं ,

माँ का आँचल भीगा हुआ ,

चेहरे को पोंछता हुआ ,

ताज़गी से भरता हुआ।

********************

रात हो , चाँद हो ,

झिलमिल झिलमिल ,

हल्की हल्की फुहार हो

रिमझिम रिमझिम ,

तेरा साथ हो ,

हांथों में हाथ हो ,

मंजिल हो न हो ,

हम सफर में हों ,

जिन्दगी यूँ ही कट जाए ,

सबकुछ खुशनुमा हो।

***************

धीरे धीरे ढलता दिन ,

धीरे से उतरती उदास शाम ,

धीरे धीरे बरसता बूँद बूँद पानी ,

थम जाए जब कुछ खुशनुमा हो जाए ,

धीरे धीरे उतरने लगे चांदनी ,

दिखने लगे चाँद , साफ़ , धुला ,

नहाया सा , चमकता हुआ।

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14. आदरणीय समर कबीर जी

छन्नपकैया

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छन्नपकैया छन्नपकैया, बरसे रिमझिम सावन

कोयल कूके,पंछी चहके , नाच उठे हैं तन मन

 

छन्नपकैया छन्नपकैया ,रूमानी है मौसम

बारिश की रिमझिम में भीगें,आओ मिल कर जानम

 

छन्नपकैया छन्नपकैया, घिर घिर बादल आये

रिमझिम की मस्ती में देखो,ढोली ढोल बजाये

 

छन्नपकैया छन्नपकैया,ख़ुश है कितना माली

रिमझिम के कारण बाग़ों में,आयेगी हरियाली

 

छन्नपकैया छन्नपकैया,रिमझिम रुत जो आये

कोई नाचे अपनी छत पर, कोई नग़मे गाये

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15. आदरणीय सतीश मापतपुरी जी

गीत

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रिमझिम रिमझिम बूँदें बरसे भींगे धरती सारी.

बूँदें पाकर धरा हरा हो खिल जाती फुलवारी.

 

किसानी पर छाती जवानी खेतों में हल डोले.

रोपनी के गीतों को सुनकर मन खाये हिचकोले.

बारिश के ही बल पर तो भर जाये कोठी-अटारी.

 

रिमझिम रिमझिम बूँदें बरसे भींगे धरती सारी.

स्वाति की एक बूँद की खातिर चातक आँख बिछाये.

बारिश के आते ही मेढ़क टर्र - टर्र की धुन गाये.

नीम की  डाल पे झूले झुला  भाभी- ननद कुँवारी.

 

रिमझिम रिमझिम बूँदें बरसे भींगे धरती सारी.

बूँदें बरसे भींगे तन - मन  काला हो या गोरा.

काश ! ये बूँदें मैल धो डाले हो जाये मन कोरा.

मानवता का भाव जगे मिट जाये लूट - चकारी.

रिमझिम रिमझिम बूँदें बरसे भींगे धरती सारी.

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16. आदरणीय बृजेश कुमार त्रिपाठी

दोहा छंद

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फिर रिमझिम के शोर ने, जगा दिए हैं भाव.

हरित पुनः द्रुत हुए अब, चातक-मन के घाव.

 

यादें इतनी सघन हैं, ज्यों घिरते घनश्याम

आँखों से रिमझिम झरें हुआ वियोगी काम,

 

दादुर ध्वनि से गूंजते, प्रियतम के मृदु बैन

आग लगी तनमन विकल,कहाँ खो गया चैन

 

नृत्य कर रहा हो विकल मन मयूर एहि ठौर

कहाँ पिया कह खोजता,पिया संग केहि और 

 

हाइकू

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प्यासी धरती

गर्म तवे की बूँद

ठंढी फुहार...1

 

रिमझिम मे

प्रेम-गीत सुनिए

आओ न प्रिय...2

 

घुमड़े मेघा

बौराए फिर मोर

रूठो न प्रिय...3

 

सांसों के बन्ध

खोए हैं छलछंद

भीनी फुहारें....4

 

घोर घटाएं

फिर से घिर आई

नाचे मयूरी....5

 

प्यासा चातक

बरस गया पानी

स्वाती हेरानी...6

 

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17. आदरणीया राजेश कुमारी जी

माहिया रिमझिम  सावन

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रिमझिम-रिमझिम सावन

बरसे आँगन में 

भीगे अपना तन मन

 

सावन के ये झूले

कहते हैं मुझसे

आजा अम्बर छूले

 

तीजों की सुन कजरी 

गाती है रुक- रुक

अम्बर से इक बदरी

 

बारिश की ये बुँदिया

चैन चुराए अब 

लूटे मेरी निंदिया

 

 

मेंहदी के ये बूटे

अगले जनम तक न

इन हाथों से छूटे

 

बागों की हरियाली

धरती ने पहनी

चुनरी दुल्हन वाली

 

मौसम ना दूरी का

नाचे छम छम मोर 

दिल लूट मयूरी का

 

बाल रचना (द्वीतीय प्रस्तुति)

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माँ माँ देखो बादल आये

रिम-झिम रिम-झिम बूँदे लाये

विद्यालय का समय हुआ है

बाहर पानी भरा हुआ है

भीग न जाएँ पुस्तक सारी

पकड़ न ले कोई बीमारी

टीचर जी को चिट्ठी लिख दो

आज मेरी तुम छुट्टी कर दो

नहीं चलेगा कोई बहाना

रेन कोट ये पहन पुराना

अब बरसेगी हर दिन बदरी

कल लादूँगी एक नई छतरी

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18. आदरणीय  सुरेश कुमार 'कल्याण' जी

रिमझिम

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बूँदों को बहुत समझाया सूखे में ही तुम आया करो,

रिमझिम में आकर ऋतु का मजाक ना बनाया करो।

बूँदें बोली_ _ _ _

रिमझिम के बावजूद भी आपको सूखा पाती हैं,

बस इसलिए सूखेपन को मिटाने चली आती हैं।

 

तजुर्बेकारों की दुनिया में मैं बेतजुर्बा ही रह गया,

रिमझिम में भी खिला न दिल सूखा ही रह गया।

 

तन्हाई को दूर करने की कोशिश तो खूब करती है,

बेशर्मी की हद हो गई ये रिमझिम से कहाँ डरती है।

 

देहाती हवा में सांस लेते थे जो मनमर्जी से,

तेरे शहर में आकर डरते हैं आज खुदगर्जी से।

 

वो आक के पत्तों की कश्तियाँ वो बारिश का पानी,

चित्तचोर हो गई क्यों ये बूँदें रिमझिम की दीवानी।

 

दिल कहे चलो सारे गमों को भूल जाते हैं,

रिमझिम में बूँदें बूँदों में रिमझिम ढूंढ लाते हैं।

 

हाइकू (द्वीतीय प्रस्तुति)

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रिमझिम बारिश

छाई हरियाली

घटे दुःख।

 

रिमझिम सावन

झोंपड़ी टपर-टपर

बढ़े दुःख।

 

रिमझिम फुहारें

महकी कुदरत

झूमके आया सावन।

 

रिमझिम बूँदें

बही बयार

चिलचिलाती धूप।

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19. आदरणीय मनोज कुमार ‘अहसास’

अतुकांत

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सुब्ह के आँगन में दोपहरी

व्याकुल होकर टहल रही थी

और स्वेद की प्रथम अवस्था

देर से चिपकी हुई थी तन से

बादल की आँखों में शायद

निर्मम अपराधों की सज़ा थी

लाचारी अपराधी बनकर

चुपके चुपके सुलग रही थी

तब

अकारण करुणाकर की

करुणा का साकार दृश्य

रिमझिम रिमझिम

रिमझिम रिमझिम

 

निगल गई है धूप सृजन को

तन की तपन है मन पर हावी

नीरवता का सहरा बनकर

एक मरू सा जलता है मन

आज तुम्हारी प्रेम वेदना

जीवन के संघर्ष में दब गई

उमड़ घुमड़ कर प्रीत के बादल

आ जाएँ एक बार नयन में

फिर

प्रेम रीत की एक व्यंजना

मुझमे ही साकार हो उमड़े

रिमझिम रिमझिम

रिमझिम रिमझिम

---------------------------------------------------------------------------------

20. आदरणीय सुशील सरना जी

अतुकांत

=============================

वो रिमझिम वो बारिश

वो घटाओं का छाना

तेरा बाम पर

मुझसे मिलने को अाना

वो भीगे पैरहन से

बदन को छुपाना

फिर पलकें गिराना

ज़रा मुस्कुराना

दुपट्टे के कोने को

मुंह मेंं दबाना

फिर हौले से जुल्फों को

चेहरे से हटाना

चुपके से अाना

बहाने से जाना

मारे हया के

सुर्ख हो जाना

वो हाथों से ख़म अपने

भीगे सुलझाना

ज़हन में है ज़िंदा

वो गुज़रा ज़माना

ख़ुदा मेरे इस दिल को

कुछ देना न देना

मगर

यादों से रिमझिम का

मौसम न लेना

--------------------------------------------------------------

21. आदरणीया कान्ता रॉय जी

छंदमुक्त

=====================

रिमझिम बूँदें मधुमास चाहती है

 

 

गर्भ में बदली के उस कोने से

झाँकतीं बारिश की बूँदें

डरी सहमी-सी मिट्टी में

धूसरित होने से डरती है

 

बाढ़ बनने से

बेतरह घबराई बूँदें

सियासत के बुर्ज की

सीढ़ी नहीं बनना चाहती है

 

खुली दरवाजों वाली

धरती तक धँसी

गहरी झोपड़ियों को देख

निश्छल बूँदें रो पड़ती हैं

 

नेह में पगी

पहली आषाढ़ की बूँदें

शुष्क धरती की दरारों को

अपने अधरों से

उस रूखेपन को

सोखना चाहती है

 

नीले आसमान से उतरकर

मदमाती बूँदें

मधुमालती - सी खिल-खिल

गमक कर इतराना चाहती है

 

लहक-लहक

हरियाली बनकर

बूढ़े किसान के

आँखों की आस में

एक मधुमास चाहती है

--------------------------------------------------------------

21. आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी

अतुकांत

===================

 

राहगीरों से बस क्षमा मांगती

गली-गली संग कराहती सड़क।

 

रिमझिम वर्षा के आनंद को

कष्टों से दबाती

भ्रष्टों की आदतन सनक।

राहगीरों से बस क्षमा मांगती

गली-गली संग कराहती सड़क।

 

गड्ढों, कीचड़, गंदे पानी से

योजनायें सारी समझाती

दुर्घटना, बीमारी की भनक।

राहगीरों से बस क्षमा मांगती

गली-गली संग कराहती सड़क।

 

नाली व नालों से कचरा लेकर

जनता को दर्पण दिखाती

रिमझिम वर्षा बस देती सबक़।

राहगीरों से बस क्षमा मांगती

गली-गली संग कराहती सड़क।

 

(दूसरी प्रस्तुति) हाइकू

====================

वृक्ष प्रसन्न

रिमझिम हर्षित

लक्ष्य साधन

 

वृक्ष उपेक्षा

बारिश अपेक्षित

स्वार्थ वांछित

 

मेघ के हार

रिमझिम फुहार

बाग़ बहार

 

 

------------------------------------------------------------------------------------------------------------

22. आदरणीय  सतविन्द्र कुमार जी

कुण्डलियाँ

====================================

बादल का जैसे हुआ,आना अपनी ओर

रिमझिम फिर बारिश हुई,घटा ताप का जोर

घटा ताप का जोर,ख़ूब शीतलता पाई

मिला खेत को नीर,फसल भी अब लहराई

बरखा की हर बूँद,बढ़ाती सबका मन-बल

बच्चे होते मग्न,खेलता पानी से दल।।

 

हाइकू (द्वीतीय प्रस्तुति)

=====================

तपता दिन

सूखते हुए होंठ

नीर सहारा।

 

रिमझिम से

बरसते बादल

आश्रित कृषि।

 

बूंदों-से गिरे

रिमझिम करते

दर्द के आँसू।

 

बालक-मन

डाँट को न सहता

छलके नीर।

 

तारे छिपते

रिमझिम बरखा

रात अँधेरी।

 

बारिश पर

कुदरती पकड़

मनुष्य दुखी।

***************************************************************************

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संकलन प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार आदरणीय मिथिलेश जी।सादर

हार्दिक धन्यवाद आपका 

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