For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 51 की समस्त रचनाएँ चिह्नित

सु्धीजनो !
 
दिनांक 18 जुलाई 2015 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 51 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी हैं.

इस बार प्रस्तुतियों के लिए तीन छन्दों का चयन किया गया था, वे थे दोहा, रोला और कुण्डलिया छन्द

वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के लिहाज से अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.

जो प्रस्तुतियाँ प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करने में सक्षम नहीं थीं, उन प्रस्तुतियों को संकलन में स्थान नहीं मिला है. 

फिर भी, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव

***********************************************************

1. आदरणीय मिथिलेश वामनकरजी

दोहा-गीत [दोहा छन्द पर आधारित]
=====================
सावन आया झूम के,
झटपट झूला डाल.

कोयल मन की कूकती, बैठी अमुआ डार
मेरे मन पर छा गया, बादल सा विस्तार
साँसों को महका रही,
गुम्फित मोंगर माल

आज घटा घनघोर है, सूरज भी है व्यस्त
आँचल को छोड़े नहीं, सर्द हवा मदमस्त
मौसम में दिल खो गया,
सुख भी हुआ निहाल

बाबुल का आँगन नहीं, ना तुलसी चौबार
आँगन छूटा, ले गया, सावन की बौछार
झूला खोया, खो गया,
गोरी का मुख लाल.

जीवन जैसे झूलता, सुख दुःख लेकर साथ
इस झूले में झूल ले, मिल जाएँ रघुनाथ
उनका पाया साथ तो
भवसागर भी ताल.

पाँचों के जो मोह में,  झूला बारम्बार
सावन ने सिखला दिया, क्या है पिय का प्यार
देख चमक आकाश की,
छूटा मायाजाल.   

(संशोधित)

*****************************************************

2. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव

दोहे - प्रथम प्रस्तुति

 

पेड़ों पर झूले पड़े, सावन मास बहार।
बारी बारी झूलना, कहती सखियाँ चार॥

 

झोंटे देती पैर से, तेज़ हो गई चाल।
अंग-अंग सब झूलते, दर्शक हुए निहाल॥
 
भीड़ बहुत है बाग में, सुंदर यह संयोग।
झूले का लेते मज़ा, जोश दिलाते लोग॥
 
यमुना के तट कृष्णजी, झूले राधा संग।
आज वही आनंद है, और वही है रंग॥
 
सजी फूल से वेणियाँ, लाल पीत परिधान।
हरियाली चहुँ ओर है, महक उठा उद्यान॥
 
झूम झूमकर झूलना, पुलकित सकल शरीर।
जाने कब मौका मिले, सखियाँ हुई अधीर॥
 
मौसम है मस्ती भरा, फँसी डोर में जान।
साथ चाहते झूलना, बूढ़े प्रौढ़ जवान॥

******************************************************

3. आदरणीय श्री सुनीलजी


रोला छंद
=========
तू क्यों नाचे मोर!, बता क्यों खुश इतना है
है कारण बनफूल कि कारण घन उठना है
हम तो हैं खुश आज, हमारे पी आयेंगे
हिंडोले में झूल, झूल झूमर गाएंगे.

फबे पीत परिधान, हाथ में शोभे कंगन
अति आतुर ये नैन, हुए लगते हीं अंजन
इधर सखी तू आ न, थाम के ये अब चुनरी
तू गा दूँ मै ताल, उठा तो सुर में कजरी

बरस, गरज मत किन्तु ,काँप मैं जाऊँ भय से
सजन अभी हैं दूर, कहूँ तो क्या इस वय से
कह दे उनसे आज, अभी आया है यौवन
छेड़े बादल वायु,देख के छू के ये तन.
(संशोधित)
*************************************************************************

4. सौरभ पाण्डॆय 

झूला-गीत [रोला छन्द आधारित]

चपला चंचल चौंक चमकती
मन दहकाये..
ले दहका मन-देह, झूल जा पेंग चढ़ाये !

कोरे मन को फाँस रहा है जादू काला
पीली चुनरी ओढ़, हुआ अहसास निराला
तू अपने रख और रखूँ मैं अपने गहने
सौ चाभी का तोड़, लगा हर तन को ताला
लेकिन ये भी चाह..
कहीं से चोर समाये !  
ले दहका मन-देह, झूल जा पेंग चढ़ाये !

दिन भर का खटराग, झूलना शाम-दुपहरी
मन की उभरी टीस, खींचती साँसें ठहरी
आँखों के ओ मेघ ! बरस मत, भले घुमड़ ले !
सखी-सहेली ताड़ न लें जो दिल में गहरी  
पर ये गहरी फाँस,
समझ क्या प्रीतम पाये.. ?
ले दहका मन-देह, झूल जा पेंग चढ़ाये !

छलके छतिया छोह नेह से भर-भर आती
’धधक रही है प्रीत’, बताती, फिर शरमाती
’खतम करो मलमास देह के शंख बजाकर..
प्रिय बाँचो सुख-सार’ - सोच नस-नस उफनाती
संगम का सुख-भास
गंग से जमुन मिलाये
ले दहका मन-देह, झूल जा पेंग चढ़ाये !

टपक रही हर बूँद, आह से जोड़े नाता
दिन रखता है व्यस्त, भुलावे में बहलाता
लेकिन होती रात, बेधती हवा निगोड़ी
यादों का उत्पात, चिढ़ाता और रुलाता
निर्मोही की याद सताये
पीर बढ़ाये..  
ले दहका मन-देह, झूल जा पेंग चढ़ाये !
****************************

कुण्डलिया
========
बदली, झींसी, नम-हवा, सुखकर कजरी-बोल
झूला औ’ उल्लास में रिश्ता है अनमोल
रिश्ता है अनमोल, किलकती सखियाँ झूलें
गुनगुन का उद्भास - बोल से कलियाँ फूलें
गाती झूला-गीत, उचक झूले पर लद ली
भीगी क्या इस बार, ’सँवरकी’ पूरी बदली !

लगातार घन धौंकते, विरही मन में आग
झूला कजरी बूँद से लेता पाठ सुहाग
लेता पाठ सुहाग - अकेले कैसे सहना
साजन हो जब दूर, निभाना, संयत रहना
हँसी-ठिठोली-खेल, हवा में दर्द उड़ाता
सखियों का ले साथ, झूलता पेंग लगाता
*****************************

दोहे
====
झूला झूले रागिनी, लहर-लहर में राग
बाहर जितना आर्द्र तन, भीतर उतनी आग

सज-धज झूलें लड़कियाँ, यौवन नव उत्साह
लगा सुनामी आ गयी, छोड़ समन्दर राह

संप्रेषण भी आजकल, हुए क्रिस्प औ’ फ़ास्ट
जो भी गुजरा कह रहा - ’झूले पर बम-ब्लास्ट’ !

जा निर्मोही भूल जा, मत कर मुझको कॉल
तू भी निकले जब कभी, बन्द मिले हर मॉल !!

जब से सावन आ रहा, झूला-झूलन भूल
बचा झाँकियों के लिए महज़ ’वाउ’ या ’कूऽऽल’ !

तू झूली अब आ उतर, मत कर नम्बर गोल
हवा-हवा उड़ती हुई, सखियाँ करें किलोल  !!

****************************************************************

5. आदरणीया डॉ. नीरज शर्मा जी

प्रथम प्रस्तुति

कुण्डलिया

============
उमड़-घुमड़ कर छा गई, श्याम घटा घनघोर।
मधुर मिलन रितु आ गई, बगिया में चहुं ओर॥
बगिया में चहुं ओर ,पपीहा कोयल बोलें।
भंवरे दादुर मोर, कान में मधुरस घोलें॥
सावन रंग-तरंग, उमंग हृदय में भरकर।
बदरा जी हुलसाय , सभी का उमड़-घुमड़ कर॥

घायल मन को ज्यूं मिला, सावन भीगा प्यार।
गली गली में मन रहा, तीजों का त्यौहार॥
तीजों का त्यौहार, पड़े अमुआ पे झूले।
सखियां गातीं गीत, झूलतीं सुध-बुध भूले॥
कर सोलह सिंगार, चलीं छनकातीं पायल।
देख सलौना रूप पिया हो जाएं घायल॥

भूले सुध –बुध मन कभी, लेकर तेरा नाम।
लगे थिरकने ताल पर, भूले सारे काम॥
भूले सारे काम, चुनरिया उड़-उड़ जाए।
चल साजन के देस, कहे जियरा भरमाए॥
विरह अगन झुलसाय, कहीं  तन –मन ना छूले।
काम बना है सौत , सजन सावन को भूले॥

द्वितीय प्रस्तुति
दोहे
====
घनन घनन कर बादरा , शोर न कर नभ माहिं।
तहां, जहां साजन बसे , जमकर बरसो जाहिं॥

लपट झपट  तन  बावरा ,  निरखत  संझा  धूप।
चटक मटक मुख सहज ही, निखरत तन्वी रूप॥

पीत  रक्त  पट  ओढ़ि   तन , पेंग  चढ़ाएं  नार।
झूलत कटि तनु खांहिं बल ,लचकत यौवन भार॥

सुभग कमल दल ताल में , सुरभित मलय समीर।
वंशी   धुन  सुन  कुंज  में ,  राधे   होत   अधीर॥

पटह  ध्वनि गुंजत रही , गमक रहे पकवान।
ललच रहे ललना ललन , खाय करें गुनगान॥
***************************************************************

6. आदरणीय गिरिराज भण्डारीजी

सात दोहे
=========
मन गदगद फिर से हुआ , अमराई को देख
परंपरायें लिख रहीं , फिर से सुन्दर लेख

 

परम्परायें  देश की , लगती हैं बे जोड़.
सावन झूला झूलने की कितनी है होड़.

 

फिर पेड़ों पर बन गया, देखो झूला एक
झूल रहीं कुछ लड़कियाँ, परिधानों में नेक

 
फँसी हुई कुछ चाह है , परिधानों के संग.
उस पर बरखा दुष्ट ये , गाढ़ा कर दे रंग
 
हिय में उठती प्यास भी, ऊपर उठती जाय
पर झूले के साथ में ,नीचे कभी न आय
 
सकुचाती साहस भरी , झूल रही है नार
जगह बनी दो की मगर,झूल रहीं है चार
 
भीड़ तालियाँ पीटती, बढ़ा रही उत्साह
उनको भी मौका मिले, मन में रख कर चाह

(संशोधित)
*******************************************************

7. आदरणीय प्रदीप सिंह कुशवाहाजी
दोहे
====
झूल झूल सखि गा रहीं, किशन बजावत झाल।
राधा रानी दे रही, ढोलक पर सुर ताल ।।

बदरा धरती छू रहे, मदन भये बेहाल ।
कोयल गाना गा रही, कजरी करे कमाल ।।


गुइयाँ छिपके तक रहीं , आवत मोहे लाज
बदरा का घूंघट करूँ, छुपे न फिर भी राज ।।

पीली पीली साड़ियां, चुनरी सबकी लाल ।
घेरे सब सखियाँ खड़ीं, पिया बजावत गाल । ।  

सुन सखि सावन आ गया, डारो झूला आज ।
पैंग मार हम उड़ चले, पिया बजाएं साज ।।

बादल भी सब उड़ चले, पिया न आये पास।
खुशियाली तो हर जगह, मनवा मोर उदास ।  ।
(संशोधित)
*******************************************************

8. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लड़ीवालाजी
सावन का गीत
==========

मुखड़ा - सखियाँ झूला झूलती,

            होकर हृदय विभोर

 

पड़ी फुहारें देखकर, नाचें मन का मोर

बागों में झूलें डलें, धूम मची चहुँ ओर |

शीतल मंद बयार में,

लेता हृदय हिलोर |

 

खन-खन खनके चूडियाँ, दिशि दिशि गूंजें शोर

मनवा डोले झूमते भीग रहे दृग कोर  |

छायी है खुशियाँ यहाँ,

किलकाते चहुँ ओर |

 

सावन के झूले करे, कुदरत का संकेत,

आगे पीछे झूलते, धूप-छाँव सम देत |

कुदरत भी रस घोलती,

नाचें मन का मोर |

 

साजन आयें लौटकर, देखे गाल गुलाब,

चन्द्रमुखी मृगलोचनी, तेरा नहीं जवाब |

सावन तेरी आँख में,

चंचल चित्त चकोर |

 

सावन ऋतू आई प्रियें, रिमझिम पड़ें फुहार,

पवन देव की बांसुरी, गाये मेघ मल्हार |

रंग बिरंगी ओढनी,

लिए प्रीत की भोर

 

सखियाँ गाती झूलना, कोयलियाँ री तान

मचकाती सब झूलती, बाबुल की मुस्कान |

लेती है अंगडाइयां,

मन में उठे हिलोर |

  

करती खूब कलोल (दोहे)

सावन की बौछार में, भीगा है संसार

झूलाझूले सब सखी, सुने मेघ मल्हार |

 

सजधज सखियाँ आ रही,कर सोलह शृंगार,

सावन की बौछार में, मने तीज त्यौहार |

 

मचकाती झूले सदा, करती खूब कलोल,

साजन आते याद है,सुन पक्षी के बोल |

 

बूंद बूंद बरसा रही, कुदरत करे कलोल,

सावन की बौछार में, भीगे खूब कपोल |

 

बदरा करते है कभी,  सावन की बौछार,

चमकाती बिजुरी कभी, सखियों का शृंगार |

 

चंद्रमुखी मृगलोचनी, तेरा नहीं जवाब

सावन के बौछार में, देखे गाल गुलाब |

कुण्डलिया

=========

झूला झूले सब सखी, कर सोलह शृंगार,

पावस ऋतु आते सभी, तीजों के त्यौहार

तीजो के त्यौहार, सुहागिन सभी मनाती

कुदरत भी माहौल, सदा खुशनुमा बनाती

कह लक्ष्मण कविराय, ईश को मानव भूला,

करे प्रकृति से प्यार, तभी खुशियों का झूला |

(2)

अमुआ तेरे बाग़ में, खुशियों की बौछार,

झूला डाले डार पर, उमड़ रहा है प्यार |

उमड़ रहा है प्यार, झूलने सखियाँ आती

बारिश की बौछार, सभी का तन महकाती

कह लक्ष्मण कविराय,हवा जब बहती पछुआ

झूला देते डाल, डार पर तेरी अमुआ |

(संशोधित)

********************************************

9. आदरणीय सुशील सरनाजी

दोहा छंद (सावन)
===============

सावन के घन देख के, नाचा   मन  का  मोर
हर्षित मन करने लगा ,पिया मिलन का शोर

बूंदों  की  बजने  लगी,  पायलिया  हर  ओर
पी  दरस  को  तरस गया,नैनों  का  हर कोर

मेघ मिलें जब मेघ से, शोर करें घनघोर

प्रेम गीत बजने लगें, सृष्टि में चहुँ ओर   .......... (सशोधित)

सावन  की  बौछार  में ,  झूला   झूले   नार
नयनों  की  होने  लगी ,  नयनों  से  ही रार

भीगी  बारिश  में  धरा , मिटा जेठ का ताप
घूंघट  में  लज्जा  बढ़ी , नैन  करें   उत्पात

सुर्ख  कपोलों  पर रुकी,बारिश की  इक बूँद
वो  सपनों  में  खो गयी , अपनी  आँखें मूँद

कुण्डलिया :

=========

हर मौसम से है बड़ा ,सावन मस्त महान
झूलों  में  झूलन  लगें, यौवन  के  दीवान
यौवन के दीवान ,लाज  सब  तज के आये
नखरेली  हर  नार ,  प्रीत  की  पैंग बढ़ाये
पहन  पीत  परिधान,  हर्ष  में  झूलें निडर
तृषा मिटायें नयन ,हसीं है मौसम अब हर


***************************************************

10. आदरणीय डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तवजी
दोहा गीत
========
भीगा सावन आ गया
उठी घटा घनघोर

पेड़ों पर झूले पड़े
झूलें नवला नार
अम्बर से करता जलद
जल की रस-बौछार

रह-रह कर है नाचता
वन का मन का मोर

पुरवा की मातल हवा
उर को देती चीर
और कसकती देह में
आज पुरानी पीर
 
हवा खेलती वारि से
जल नूपुर का शोर

चार सहेली झूलती
रक्त-पीत पट धार
पेंग बढ़ाती शून्य में
है स्वच्छन्द विहार

सहमा सिमटा मौन है
आकुल भीत चकोर

झूले की प्रतियोगिता
झूले का संसार
जिसकी जितनी पेंग है
उतना ही व्यापार
 
सुध-बुध खोकर देखता
मानव  आत्म-विभोर
 
हवा थमेगी एक दिन
बीतेगी बरसात
झूला जायेगा उतर
रह जायेगी बात

स्वप्न सरीखा है जगत
शाश्वत  नही हिलोर

रोला छन्द
=========
बहती मस्त बयार  झूमती तरु की काया
लेकर मन्मथ मार  विहंसता सावन आया

झूले पर हैं  नार   लाल -पीली है सारी
यौवन मद का भार देखती दुनिया न्यारी

पेंग बढ़ाती एक   लहर उठती है प्यारी
उड़ते हैं परिधान   फहर उठती है सारी

यौवन का उल्लास दूर अम्बर तक फैला
सोलहवां  है साल वपुष हो  रहा विषैला

आया सावन मास  गंध अपनी बिखराये

लम्पट बन परिहास  मुग्ध मन को बौराये  

आता है प्रति वर्ष धरा पर  सावन प्यारा

जन मानस संतप्त  झूम उठता है सारा


कुण्डलिया
=========
आया सावन डाल पर   झूले का आनन्द
बिखर गया है वात मे जीवन का मकरंद  
जीवन का मकरंद  चार तरुणी मतवारी
गाती  सावन  गीत   उर्ध्व  की है तैयारी
प्रकट हुआ उल्लास अहो यौवन की माया
पीड़ा मन्मथ-मार  साथ मे  लेकर आया

(संशोधित )
****************************************************

11 आदरणीय सचिन देव जी
दोहे
===
आते ही सावन पड़ा, झूला अमुआ डाल

झूला झूलें गोरियां, उड़ें हवा में बाल             II 1 II

 

देख सखी छूटे नहीं, तेरा –मेरा हाथ

पेंग बढाऊं जोर से, देना मेरा साथ               II 2 II

 

मत पड़ जाना हे सखी, अबकी तू कमजोर  

झूले को लेकर चलें, परम शिखर की ओर    II 3 II

 

झूला ऊपर जब चले, मन में मचे उमंग

आता नीचे तो उठे,  मीठी एक तरंग       II 4 II

 

आज सहेली छेड़ दे, ऐसा सावन गीत

झूम-झूम बरसे घटा, आन मिले मनमीत    II 5 II

 

झूला झूलो जोर से, लेकिन रखना ध्यान

टूटे जो हड्डी कहीं, शादी में व्यवधान        II 6 II

 

झूल सकें झूला अगर, आप शाम के शाम

मिले अनोखा सुख रहे, जोड़ों में आराम        II 7 II

 

आज यहाँ इस मंच ने, उगले सावन गीत

नजर नही आती मगर, झूलों की अब रीत    II 8 II

(संशोधित )

*************************************************************

12. आदरणीय विनय कुमार सिंहजी
कुण्डलियाँ छन्द

==================
सावन आया देख के , उठा जो मन में वेग
चारो सखियाँ मिल गयीं , लगी लगाने पेंग
लगी लगाने पेंग , छुईं जब पेंड़ की डारी
चलने लगी समीर तभी कस के मतवारी
हर्षित हुआ किसान देख के मौसम प्यारा
लगने लगा नवीन उन्हें ये जग अब सारा
*******************************************************

13. आदरणीय रमेश कुमार चौहानजी
दोहा-गीत
======
रेशम की इक डोर से, बांधे अमुवा डार ।
सावन झूला झूलती, संग सहेली चार ।।

सरर सरर झूला चले, उड़ती आॅचल कोर ।
अंग अंग उमंग भरे, पुरवाही चितचोर ।।
रोम रोम आनंद भरे, खुशियां लिये हजार ।
सावन झूला झूलती, संग सहेली चार ।।

नव नवेली बेटियां, फिर आई है गांव ।
वही बाबूल का द्वार है, वही आम का छांव ।।
छोरी सब इस गांव की, बांट रहीं हैं प्यार ।
सावन झूला झूलती, संग सहेली चार ।।

सावन पावन मास है, धरती दिये सजाय ।
हरियाली चहुॅ ओर है, सबके मन को भाय ।।
सावन झूला देखने, लोगों की भरमार ।
सावन झूला झूलती, संग सहेली चार ।।
******************************************************

14. आदरणीया राजेश कुमारीजी
कुण्डलिया छंद
==========
सखियाँ झूला झूलती ,मिलकर देखो चार|
तीजो के त्यौहार में ,करके नव सिंगार||
करके नव सिंगार ,पहन परिधान सजीला|
सजे किनारी लाल ,रंग साड़ी का पीला||
गजरा पहने श्वेत ,श्याम कजरारी अखियाँ|
बढ़ा रही दो पेंग ,साथ बैठी दो सखियाँ||
***********************************************************

15. आदरणीय अशोक कुमार रक्तालेजी
दोहा-गीत
=======
सावन के झूले बँधे, लगी चहकने डाल

झूल रही सखियाँ मगन,
ऐसी पड़ी फुहार
अमुवा पे यौवन चढ़ा,
निखर गया शृंगार

तन लेता अँगड़ाइयां, कहता दिल का हाल

सुधियों की सौंधी महक,
अंग रही है चूम
हिरणी बन नर्तन करे,
मन मतवाला झूम

लहरा कर चलती पवन, पात दे रहे ताल
 
कहे महावर से छनक,
पायल की झंकार
आज बुला मनमीत को,
लूँ झौंके दो चार

सुनकर लट व्याकुल हुई, चूम रही है गाल
******************************************************

16. आदरणीय अरुण कुमार निगमजी
सावन आया याद (रोला गीत)
===================
देख पुराना चित्र, पिया ! भर अँखियाँ आईं
सावन आया याद, याद कुछ सखियाँ आईं ||

वह अमुवा की डाल, और सावन के झूले
मस्ती  वाली  पेंग, भुलाये  से  ना  भूले
नवयौवन  का  भार, लचकती  हुई  कमरिया
फिसल गई बन मीन, अचानक कहाँ उमरिया

देख घटा मशरूम   सरीखी स्मृतियाँ आईं
सावन आया याद, याद कुछ सखियाँ आईं ||

वह सोलह सिंगार और वेणी का गजरा
झुमका  सूता हार, मेंहदी माहुर कजरा
खनखन चूड़ी हाथ,, कमर कसती करधनिया
बिंदिया चमके माथ, पाँव  बिछिया पैंजनिया

हौले - हौले  कान  कही कुछ  बतियाँ आईं
सावन आया याद, याद कुछ सखियाँ आईं ||

अब  सावन  कंजूस, बाँटता बूँदें गिनगिन
आवारा  हैं  मेघ, ठहरते  हैं  बस  दो  दिन
लुप्त  हो  रहे  मोर, कटीं अमुवा की डालें  
दूषित पर्यावरण,  कर रहा नित हड़तालें

ले उन्नति का नाम, सिर्फ अवनतियाँ आईं
सावन  आया  याद, याद कुछ सखियाँ आईं ||
******************************************************************

17. आदरणीय सत्यनारायण सिंहजी
कुण्डलिया
=======
झूले सावन के पडे, रिमझिम पडे फुहार|
देखो झूला झूलती, ललनाएँ मिल  चार||
ललनाएँ  मिल चार, गीत सावन के गातीं|
पहन चुनरिया पीत, मीत मन प्रीत जगातीं||
छबि सजनी अति रम्य, देख साजन सुधि भूले|
झूल गयी पिय बांह, मनस सावन के झूले||
***********************************************************************

Views: 8024

Replies to This Discussion

आदरणीय गिरिराजभाई, आपने अपनी पारिस्थितिक विवशता आयोजन के पोस्ट के साथ ही मंच से साझा कर लिया था. आप जैसे अति सक्रिय सदस्य रचनाकार-पाठक का किसी एक-दो आयोजन के दौरान सकारण अनुपस्थित होना कभी किसी को नहीं अखरता. अलबत्ता, ऐसे में हम संवेदनशीलता के साथ कारणों को स्वीकार करते हैं.

सावन झूला झूलने , की कितनी है होड़ .. इस पद में या ऐसे पदों में, जहाँ पूरा पद विधा सम्मत होने के साथ-साथ एक वाक्य की तरह हो, में यति के लिए कॉमा दर्शाने की आवश्यकता नहीं होती. दोहा के पाठक वाचन के क्रम में स्वयं यति का स्थान तय हुआ समझ लेते हैं.

आपके संशोधित और तदनुरूप निवदित दोहों को यथा स्थान प्रतिस्थापित कर दिया गया है.
शुभ-शुभ

आदरणीय सौरभ जी, आयोजन मैं प्रस्तुत रचनाओं के संकलन के श्रम साध्य कर पर आपको हार्दिक बधाई !
 आयोजन मैं प्रस्तुत मेरी प्रस्तुति को इस प्रकार से संशोधित करने का  निवेदन है  ! धन्यवाद !

 

 

---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
आते ही सावन पड़ा, झूला अमुआ डाल

झूला झूलें गोरियां, उड़ें हवा में बाल             II 1 II

 

देख सखी छूटे नहीं, तेरा –मेरा हाथ

पेंग बढाऊं जोर से, देना मेरा साथ               II 2 II

 

मत पड़ जाना हे सखी, अबकी तू कमजोर  

झूले को लेकर चलें, परम शिखर की ओर    II 3 II

 

झूला ऊपर जब चले, मन में मचे उमंग

आता नीचे तो उठे,  मीठी एक तरंग       II 4 II

 

आज सहेली छेड़ दे, ऐसा सावन गीत

झूम-झूम बरसे घटा, आन मिले मनमीत    II 5 II

 

झूला झूलो जोर से, लेकिन रखना ध्यान

टूटे जो हड्डी कहीं, शादी में व्यवधान        II 6 II

 

झूल सकें झूला अगर, आप शाम के शाम

मिले अनोखा सुख रहे, जोड़ों में आराम        II 7 II

 

आज यहाँ इस मंच ने, उगले सावन गीत

नजर नही आती मगर, झूलों की अब रीत    II 8 II

--------------------------------------------------------------------

         ( मौलिक व अप्रकाशित/संशोधित )

भाई सचिनदेवजी, आपके संशोधित दोहों को प्रतिस्थापित कर दिया गया है.
शुभेच्छाएँ

आयोजन की सफलता और इस सुंदर संकलन के लिए बहुत बहुत बधाई माननीय सौरभ पाण्डेय जी । आयोजन की रोचकता तो देखते ही बनती थी । सुंदर और सार्थक पद्य का समागम इन्हीं आयोजनों में ही देखने को मिलता है । घर के बाहर सावन की बुनझीसी और हृदय में रोमांच से भीगा मन पढते हुए सावन के छंदों को विविध भाव लिये । क्या अद्भुत संगम था मौसम के साथ । सादर नमन

आदरणीया कान्ताजी,
पाठक और रचनाकारों का सकारात्मक सहयोग हो, तो आयोजन-संचालन का उत्साह बहुगुणा हो जाता है. इस बार के छन्द भी सहज थे. उस पर से पहली बार प्रदत्त छन्दों पर आधारित गीतों को प्रस्तुत करने की सुविधा मिली थी. चित्र भी झूले और झूलन का था. कहना न होगा, कई तरह के आरोपित मनस-बँध खुलने ही थे, खुले भी. यही कारण हुआ कि इतनी सरस प्रस्तुतियों से आयोजन समृद्ध हुआ. हम सभी लाभान्वित हुए.
आयोजनों केलिए परस्पर सहयोग व साहचर्य बना रहे, यही हार्दिक कामना है.
सादर

आदरणीय सौरभ जी सादर  प्रणाम , छान्दोत्सव- ५१ की चिन्हित  रचनाओं  के  संकलन  की प्रस्तुति पर  बहुत-बहुत  आभार. चिन्हित  रचनाएं  काफी कुछ सिखाती  हैं. सादर.

आदरणीय अशोक भाईजी, सही कहा आपने, चिह्नित हुए पद और ऐसी पंक्तियाँ हमें बहुत कुछ सिखाती हैं. वस्तुतः हममें से अधिकांश ने चिह्नित हुई पंक्तियों और पदों के आधार पर ही सार्थक अभ्यास किया है.

मैं आयोजन के दूसरे दिन दोपहर बाद ईद मिलन में व्यस्त हो जाने और घर वापस आते-आते विलम्ब हो जाने के कारण आपकी रचना पर कॉमेण्ट नहीं दे पाया था, आदरणीय. इसका हार्दिक खेद है. आपकी रचना शान्दार थी.
आयोजन में आपका सकारात्मक सहयोग रहा इस हेतु हार्दिक धन्यवाद.
सादर

 आदरणीय सौरभ जी

आपकी प्रतिबद्धता  को नमन  .आपके  ही दिशा निर्देश पर निवेदन है  कि दोहा गीत में निम्न  संशोधन करने की कृपा करें -

और कसकती हृदय में  --------------को ---------------और कसकती देह में

हवा खेलती सलिल से----------------को========== हवा खेलती वारि से

इसी तरह  रोला भी इस प्रकार पूरा कर दें ---

सावन का सहवास  गंध अपनी बिखराये

लम्पट बन परिहास  मुग्ध मन को बौराये  

 आता है प्रति वर्ष धरा पर  सावन प्यारा

जन मानस संतप्त  झूम उठता है सारा

                                          सादर .

आदरणीय गोपाल नारायनजी, आपकी छान्दसिक रचनाओं के हम सभी प्रशंसक हैं.
आपके कहे के अनुसार आपके दोहा-गीत में यथोचित परिवर्तन किया जा रहा है.

लेकिन साथ ही, रोला छन्द की प्रस्तुति में स्थानापन्न पंक्तियों में प्रयुक्त शब्द ’सहवास’ तनिक अटपटा है. यह सही है कि संग रहने से बनती अवस्था को सहवास कहा जा सकता है. शब्दार्थ यही है. परन्तु, आदरणीय, कोई शब्द क्या मात्र शब्दार्थ के आधार पर प्रयुक्त होता है ? आपका भी उत्तर ’नहीं’ ही होगा. कुछ शब्दों के निहितार्थ रुढि बन जाते हैं और उनका विशेष अर्थ ही मान्य व प्रचलित हो जाता है. सहवास  भी ऐसा ही शब्द है. और इसका ज्ञान आपको है. आप इस शब्द का कोई स्थानापन्न दें, मैं आपकी पूरी प्रस्तुति के संशोधित प्रारूप को प्रस्थापित कर दूँगा.
सादर

आ० सौरभ जी

आपका कथन बिलकुल सही है और सादर स्वीकार्य है मैं पंक्ति बदल रा हूँ कृपया संशोधन करना चाहें. सादर .

आया सावन मास  गंध अपनी बिखराये

"आदरणीय सौरभ जी नमस्कार --- सर आपके द्वारा इस दोहे को "मेघ मिलें जब मेघ से, शोर करें घनघोर,प्रेम गीत बजने लगें, सृष्टि में चहूँ और"वैधानिक रूप से सही नहीं माना। द्वितीय पंक्ति के सम चरण में 'चहूँ' को यदि 'चहुं ' से सही…"

आदरणीय सुशील सरना जी, और तथा ओर में बहुत अन्तर होता है. और एक अव्यय है जिसका व्यवहार संयोजक के रूप में होता है. यह द्व्ंद्व सामासिक शब्द का वर्णन भी है. जबकि ओर दिशा सूचक शब्द है. उसकी ओर, पूरब की ओर आदि. इस तरह सही शब्द है चहुँओर ..

आपके निवेदन के अनुसार आपके पद को प्रतिस्थापित किया गया.

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna posted blog posts
12 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार ।विलम्ब के लिए क्षमा सर ।"
13 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया .... गौरैया
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी । सहमत एवं संशोधित ।…"
13 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .प्रेम
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन पर आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभार आदरणीय"
Monday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .मजदूर

दोहा पंचक. . . . मजदूरवक्त  बिता कर देखिए, मजदूरों के साथ । गीला रहता स्वेद से , हरदम उनका माथ…See More
Monday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सुशील सरना जी मेरे प्रयास के अनुमोदन हेतु हार्दिक धन्यवाद आपका। सादर।"
Monday
Sushil Sarna commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"बेहतरीन 👌 प्रस्तुति सर हार्दिक बधाई "
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन पर आपकी समीक्षात्मक मधुर प्रतिक्रिया का दिल से आभार । सहमत एवं…"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन आपकी स्नेहिल प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक ..रिश्ते
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी के भावों को आत्मीय मान से सम्मानित करने का दिल से आभार आदरणीय"
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service