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शज़र जब सूख जाता है कोई पत्ता नहीं रहता (तरही ग़ज़ल 'राज')

1222  1222  1222  1222

 मुख़ालिफ़ होअगर मौसम तो कुछ अच्छा नहीं रहता 
बदलते वक्त में कोई कभी अपना नहीं रहता 


कोई इंसान रिश्तों के बिना जिंदा नहीं रहता 
मुहब्बत के बिना पक्का कोई रिश्ता नहीं रहता


बुजुर्गों को दुखी करने से पहले सोच ये लेना 
शज़र जब सूख जाता है कोई पत्ता नहीं रहता 


जहाँ पर मुफलिसी बच्चों से बचपन छीन लेती है 
किसी बच्चे के दिल में भी वहाँ बच्चा नहीं रहता 


ज़रूरत ज़िस्म की जिनको मशीनों सा बना देती 
हया का उनकी आँखों में कोई कतरा नहीं रहता 


न छत पक्की न दीवारें महब्ब्त के घरौंदे की 
ख़ुदा का शुक्र है उसमें ये दिल अपना नहीं रहता 


जहाँ खुशियाँ बरसती हैं पनपते हैं वहीं सपने 
जहाँ आँखें बरसती हैं वहाँ सपना नहीं रहता

मुझे थी जुस्तज़ू जिसकी हुआ अफ़सोस जब देखा
मेरे इस शह्र में भी अब कोई मुझसा नहीं रहता 
-----मौलिक 

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Comment

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Comment by Tasdiq Ahmed Khan on May 20, 2018 at 12:45pm

मुहतरमा राजेश कुमारी साहिबा , उम्दा ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं |  sher4 और 8 तकाबुले रदीफेन हो गया, "ये लेना" को "लेना यह" और "जब देखा" को "देखा जब  "कर सकते हैं |शेर 5 के सानी मिसरे में क़तरा जी जगह पर्दा ज़्यादा सही लग रहा है, देखिएगा |सादर 

Comment by narendrasinh chauhan on May 20, 2018 at 11:30am
लाजवाब
Comment by राज लाली बटाला on May 20, 2018 at 10:33am

मुझे थी जुस्तज़ू जिसकी हुआ अफ़सोस जब देखा
मेरे इस शह्र में भी अब कोई मुझसा नहीं रहता  

waahh 


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Comment by rajesh kumari on May 20, 2018 at 9:08am

आद० जनाब उस्मानी जी आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लखना सार्थक हुआ दिल से बेहद शुक्रगुजार हूँ 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on May 20, 2018 at 7:21am

 जीवन के यथार्थ को जीती और आंखें खोलती बेहतरीन ग़ज़ल के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरमा राजेश कुमारी जी।

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