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हुस्न पर पर्दा रहा

2212 2212 2212 2212

ऐ चाँद अपनी बज़्म में तू रातभर छुपता रहा ।।

आखिर ख़ता क्या थी मेरी जो हुस्न पर पर्दा रहा ।।

कुछ आरजूएं थीं मेरी कुछ थी नफ़ासत हुस्न में ।

वो आशिकी का दौर था चेहरा कोई जँचता रहा ।।

मासूमियत पर दिल लुटा बैठा जो अपना फ़ख्र से ।

उस आदमी को देखिए अक्सर यहाँ तन्हा रहा ।।

रुकता नहीं है ये ज़माना लोग आगे बढ़ गए ।

मैं कुछ खयालातों को लेकर अब तलक ठहरा रहा ।।

था मुन्तजिर मैं आपके वादे को लेकर आज तक ।

किसने कहा है आपसे मेरा नहीं रिश्ता रहा ।।

ये तिश्नगी जिंदा रही लौटा दिया दरबान ने ।

देखा तुम्हारी महफिलों में इश्क़ पर पहरा रहा ।।

मैं रब्त को बस ढूढता ही रह गया अब तक सनम ।

जो थी ग़ज़ल तुमने लिखी मैं बारहा पढ़ता रहा ।।

जलती गयी दिल की वो बस्ती जल गयीं सब ख्वाहिशें ।

तुमने लगाई आग जो अब तक मकां जलता रहा ।।

गर फिक्र होती कुछ उन्हें देते मेरे खत का जबाब ।

मैं इक जमाने से हजारों खत जिन्हें लिखता रहा ।।

मैं कह न पाया उम्र भर जो बात उसकी खौफ में ।

वह नूर मेरे शाद का यह दिल मेरा कहता रहा ।।

--- नवीन मणि त्रिपाठी मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Naveen Mani Tripathi on March 22, 2018 at 8:45pm

आ0 कबीर साहब सादर प्रणाम सर अभी दुरुसुस्त करता हूँ ।

Comment by नाथ सोनांचली on March 22, 2018 at 6:05am

आद0 नवीन जी अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई। कुछ शेर बेहद अच्छे लगे। शेष आद0 समर साहब कह चुके हैं। सादर

Comment by Samar kabeer on March 21, 2018 at 10:43pm

जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।

4थे शैर के सानी मिसरे में 'ख़यालातों' ग़लत है, ख़याल शब्द का बहुवचन 'ख़यालात' होता है इसे 'ख़यालों' भी लिख सकते हैं ।

6ठे शैर के ऊला मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर देखिये 'दरबान ने'

Comment by Naveen Mani Tripathi on March 20, 2018 at 6:46pm

आदरणीय सुशील शरण साहब सादर आभार

Comment by Sushil Sarna on March 20, 2018 at 6:34pm

ऐ चाँद अपनी बज़्म में तू रातभर छुपता रहा ।।

आखिर ख़ता क्या थी मेरी जो हुस्न पर पर्दा रहा ।।

कुछ आरजूएं थीं मेरी कुछ थी नफ़ासत हुस्न में ।

वो आशिकी का दौर था चेहरा कोई जँचता रहा ।।

वाह आदरणीय एक से बढ़कर एक शेर। ...मजा आ गया। ... इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सर।

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