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जाम रे (व्यंग कविता)

शहर के इस जाम में
पत्नी को बाइक पे टांग के
मैं जा रहा था काम से
तभी अचानक एक विक्रेता
बोला सीना तान के
छांट बीनकर माल खरीदो
बेंचू मैं कम दाम में
मैंने बोला भीड़ बहुत है
फिर आऊंगा आराम से
बोला दीदी कितनी सुंदर
उनके कुछ अरमान रे
तुम तो भइया बहुत काइयां
लगते कुछ शैतान रे
पहले बोलो क्यूं हो खोले
शॉप बीच मैदान में
हंसकर बोला खाकी वर्दी
साथ निभाए शान से
गाउन, मैक्सी,पर्स खरीदो
करते क्यूं परेशान रे
तभी अचानक नज़र पड़ गई
पत्नी की मुस्कान पे
पर्स मेरा सहला रही थी
अटकी उसकी जान से
उसकी मंशा समझ गया मैं
नही हुआ हैरान रे
खरीद के सामा घर आ गया
फिर रात कटी आराम से

(नीरज खरे)
(मौलिक एवम् अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 27, 2016 at 7:46pm

प्रिय नीरज .सच कहूं तो इस कविता रूपी कथा में  पंच कुछ हल्का है , बशर भारतीय ने इशारा  किया है . आशा है आगे अच्छी रचना पढने को मिलेगी . स्नेह .

Comment by Rahila on May 26, 2016 at 12:20pm
बहुत सुन्दर व्यंग्य ।
Comment by बशर भारतीय on May 26, 2016 at 11:09am
आ. नीरजजी निस्संदेह इस रचना पर आपने मेहनत की है मगर रचना कुछ बिखरी बिखरी लग रही है।
क्षमा सहित
Comment by NEERAJ KHARE on May 25, 2016 at 10:50pm
आदरणीया भट्ट जी आपको व्यंग रचना पसंद आई। बहुत बहुत शुक्रिया।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on May 25, 2016 at 9:20pm

सुंदर व्यंग हुआ है आदरणीय | 

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