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बह्र : २१२२ १२१२ २२

 

ये दिमागी बुखार टेढ़ा है

यही सच है कि प्यार टेढ़ा है

 

स्वाद इसका है लाजवाब मियाँ

क्या हुआ गर अचार टेढ़ा है

 

जिनकी मुट्ठी हो बंद लालच से

उन्हें लगता है जार टेढ़ा है

 

खार होता है एकदम सीधा

फूल है मेरा यार, टेढ़ा है

 

यूकिलिप्टस कहीं न बन जाये

इसलिए ख़ाकसार टेढ़ा है

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by rajesh kumari on May 12, 2016 at 9:30am

यूकिलिप्टस कहीं न बन जाये

इसलिए ख़ाकसार टेढ़ा है----हाहाहा वाह्ह्ह्ह अच्छी सफाई दी है 

मजेदार ग़ज़ल बहुत बहुत बधाई आ० धर्मेन्द्र जी 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 6, 2016 at 4:20pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय जयनित जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 6, 2016 at 4:20pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय नीलेश जी

Comment by जयनित कुमार मेहता on May 2, 2016 at 7:39am
आ. धर्मेन्द्र जी, एक अलग ही तरह की ग़ज़ल प्रस्तुत की आपने। हार्दिक बधाई!!
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 1, 2016 at 12:11pm

अच्छी ग़ज़ल हुई है ... अचार टेढ़ा है कहना कुछ ठीक नहीं लग रहा है ..
सादर 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 1, 2016 at 4:14am

शुक्रिया बृजेश जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 1, 2016 at 4:13am

बहुत बहुत शुक्रिया सुशील जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 1, 2016 at 4:13am

शुक्रिया अनुज जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 1, 2016 at 4:13am

शुक्रिया नादिर ख़ान साहब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 1, 2016 at 4:12am

शुक्रिया रवि शुक्ला जी

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