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एकात्म बोध /कविता : नीरज

तेजी से घूम रहे चक्र पर
हम ठेल दिये गए हैं
किनारों की ओर
जहां
महसूस होती है सर्वाधिक
इसकी गति
ऊंची उठती है उर्मियाँ
जैसे जैसे हम बढ़ते हैं
केंद्र की ओर
सायास
स्थिरता बढ़ती जाती है
प्रशांत हो जाती है तरंगे
सत्य का बोध
अनावृत होने लगता है
अनुभव होता है एकात्म का ....
.............. नीरज कुमार नीर

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on September 30, 2015 at 8:42pm

स्थिरता बढ़ती जाती है 
प्रशांत हो जाती है तरंगे 
सत्य का बोध 
अनावृत होने लगता है 
अनुभव होता है एकात्म का ....

बहुत ही उम्दा अहसास! आदरीय नीरज कुमार जी!

Comment by Neeraj Neer on September 28, 2015 at 12:20pm

आदरणीय  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव साहब रचना को पसंद करने हेतू हार्दिक आभार । 

Comment by Neeraj Neer on September 28, 2015 at 12:19pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय मिथिलेश जी इस हौसला आफजाई के लिए ... 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 28, 2015 at 10:41am

बहुत ही तर्कपूर्ण ढंग से कहा गया कथ्य . सुन्दर .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 28, 2015 at 4:05am

मनोवैज्ञानिक कथ्य वैज्ञानिक तरीके से .... शानदार 

इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई आपको 

कृपया ध्यान दे...

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