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"उलझन"
"क्या करने गया था उधर मंदिर की सीढ़ियो पर!"
"अभी साल भर पहले जो हुआ शहर में, याद नही!
"हाजी का बेटा होकर काफिर वाला काम!"
"चंद रोज पहले गुजरे अपने अब्बा के नाम का भी नही सोचा।"
"इस बार तो बीचबचाव हो गया, कोई फसाद हो जाता तो!".........
सभी हमदर्द अपनी अपनी कह चल दिये और वसीम आ खड़ा हुआ अपनी उलझन लिये अब्बु की तस्वीर के सामने।
"कैसे कहूँ अब्बा मैं इन लोगो से कि कल तक मस्जिद की अजान से मोहब्बत करने वाला आज मंदिर से आती आरती की आवाज से भी प्यार करने लगा है। अब ये कहने की हिम्मत तो मुझमें नही है अब्बु कि जिन सीढ़ियो पर मेरे चले जाने से 'अपने' और 'पराये' दोनो खफा हो रहे है, बरसो पहले उन्ही सीढ़िओ से आप ने मुझे उठाया था।"
'विरेन्दर वीर मेहता' (मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by VIRENDER VEER MEHTA on August 12, 2015 at 9:56pm
आदः प्रतिभा जी कथा पर अमूल्य प्रतिक्रिया देने और हौसला अफजाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रीया।
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on August 12, 2015 at 9:54pm
आदः मिथिलेश भाई जी कथा पर आपके आगमन और अपने विचार रखने के लिये मैं आपकाआभारी हूँ आपने सदा ही मेरा मार्गदर्शन और उत्साह बढाने योग्य प्रतिक्रिया देकर हौसला बनाये रखा है। मेरी ओर से आपको दिल से आभार।
Comment by pratibha pande on August 12, 2015 at 2:12pm

बहुत अच्छी लघु कथा है ,अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब ,सोचने को मजबूर करती हुई ,बधाई आपको आ० वीरेन्द्र जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 12, 2015 at 12:21pm

मानवतावादी गंभीर लघुकथा. बहुत ही मार्मिक हुई है पंचलाइन. इस सफल लघुकथा पर हार्दिक बधाई आदरणीय वीरेंदर जी 

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on August 11, 2015 at 10:54pm
कथा पर मूल्यवान प्रतिक्रिया देकर हौसला अफजाई के लिये आपका तहे दिल से आभार आदः तेज वीर भाई जी।
Comment by TEJ VEER SINGH on August 11, 2015 at 9:43pm

आदरणीय वीर मेहता जी,हार्दिक बधाई, बहुत ही ह्रदय स्पर्शी लघुकथा हुई है!एक लावारिस को कौन से धर्म का संगीत  भाता है, यह तो उसके जन्म से जुडे संस्कार ही निर्धारित करते हैं!अब पालने वाले अपना धर्म थोपना चाहते हैं!बहुत सुंदर!पुनः बधाई!

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