बह्र 212 212 212 212
टूट के कर गया आशियां दर ब दर
घूमते फिर रहे हम यहां दर ब दर
आ गये लौट कर अक्ल वाले सभी
पर जुनूं में हुए लामकां दर ब दर
कमसिनी छोड़कर अब महकने लगे
जख्म मेरे हुए बेकरां दर ब दर
खाल में भेड़ की भेडि़ये घुस गये
मर गये मेमने बकरियां दर ब दर
हो सकी क्या हमें खुद हमारी सनद
फिर रहा आदमी बेनिशां दर ब दर
हम कहां से चले थे कहां आ गये
कर रही है हमें दूरियां दर ब दर
नस्ले आदम कहीं खो न जाए कि यूँ
कोख में हो रही बेटियां दर ब दर
फागुनी रंग है चैत की रात में
हो गई जिस्म की सर्दियां दर ब दर
( मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आरणीय आशुतोष जी आपका आभार ।आपको ग़ज़ल पसंद आई शेर को रेखांकित करने के लिये पुन: आभार
आरणीय हर्ष जी ग़ज़ल आपको पसंद आई आभारी हैं हम । धन्यवाद
नस्ले आदम कहीं खो न जाए कि यूँ
कोख में हो रही बेटियां दर ब दर आदरणीय रवि जी इस सुंदर ग़ज़ल के हर शेर भाये पर इस शेर के लिए बिशेस रूप से दाद क़ुबूल करें सादर
आदरणीय Ravi Shukla जी बहुत ही उम्दा पेशकश हुई है | दाद कबूल कीजियेगा !! साभार !!
आरणीय राहुल जी आपका भी आभार
आभार आदरणीय समर कबीर जी
आपसे दाद पाकर हौसला बढ़ेगा
अनुग्रह बनाये रखे
अवश्य आदरणीय मिथिलेश जी
भविष्य मे ध्यान रखेंगे
आदरणीय रवि जी मंच की परंपरा अनुसार ग़ज़ल की बह्र २१२-२१२-२१२-२१२ लिख दीजियेगा...सादर
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