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अपनी साँसें भी मुझे अपनी सी लगती ही नहीं

अपनी साँसे भी मुझे अपनी सी लगती ही नहीं,
बात इतनी सी मगर दिल से ये निकली ही नहीं |

दिल में आतिश है बहुत ये हुस्न बे जलवा नहीं
चाहता हूँ आग उसमें पर वो जलती ही नहीं |

शाम से शब ग़ैर की ज़ुल्फ़ों में जब करने लगे
रात ऐसी जो हुई फिर सुब्ह निकली ही नहीं |

जब तलक थे हमकदम, अपना सफ़र चलता रहा,
दरिया क़तरा जब हुवा, मंज़िल वो मिलती ही नहीं |

इस कदर रोया हूँ मैं आखें भी धुंधला सी गई,
आज कुछ बूँदे भी आँखों से निकलती ही नहीं |  

हर्ष महाजन

.
हर्ष महाजन
"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by Harash Mahajan on July 27, 2015 at 5:41pm
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सच कहा आपने | आप सब का आशीर्वाद यूँ ही बना रहे | दिली शुक्रिया ओबोओ मंच का जहां आप जैसे गुनुजनों से मुलाक़ात हुई |

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 27, 2015 at 4:59pm

आदरणीय हर्ष जी संशोधन के बाद क्या खूब निखार आया है ग़ज़ल में. वाह वाह 

आदरणीय समर कबीर जी मेरे कहे के अनुमोदन के लिए और मिसरे में आपके सुझाए इस संशोधन "बात इतनी सी मगर दिल से ये निकली ही नहीं" को देखकर झूम गया हूँ क्योकि यही मिसरा मुझे भी सूझा था. चलिए आपके जैसा एक मिसरा तो सोचा. 

Comment by Harash Mahajan on July 27, 2015 at 10:08am

आदरणीय Rahul Dangi जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया !!

Comment by Rahul Dangi Panchal on July 27, 2015 at 8:13am
सुन्दर प्रयास हुआ है आदरणीय बस थोडा गुनीजनों की राय पर गौर किजिएगा
Comment by Harash Mahajan on July 26, 2015 at 8:44pm

आदरणीय Samar kabeer जी आपकी इस्लाह और इनायत से  गज़ल का आकार कुछ इस तरह हुआ है दिली शुक्रिया एक बार फिर |

...

अपनी साँसे भी मुझे अपनी सी लगती ही नहीं,
बात इतनी सी मगर दिल से ये निकली ही नहीं |

दिल में आतिश है बहुत ये हुस्न बे जलवा नहीं
चाहता हूँ आग उसमें पर वो जलती ही नहीं |

शाम से शब ग़ैर की ज़ुल्फ़ों में जब करने लगे
रात ऐसी जो हुई फिर सुब्ह निकली ही नहीं |

जब तलक थे हमकदम, अपना सफ़र चलता रहा,
दरिया क़तरा जब हुवा, मंज़िल वो मिलती ही नहीं |

इस कदर रोया हूँ मैं आखें भी धुंधला सी गई,
आज कुछ बूँदे भी आँखों से निकलती ही नहीं |  

हर्ष महाजन

Comment by Harash Mahajan on July 26, 2015 at 8:27pm

आदरणीय kanta roy जी आपकी इस हौंसिला अफजाई का मैं दिल से शुक्र गुज़ार हूँ | आपको मेरा पेश करदा इंतेखाब पसंद आया है  तो यूं समझिये मी मेहनत सफल हो गई | यकीन मानिए अपना ये इंतेखाब इस मंच पर प्रस्तुत करते हुए मैं डर रहा था कि शायद मैं अपने भाव आप सब तक पहुंचाने में कामयाब रहूँगा या नहीं | क्या कहूँ ---आपके इन खूबसूरत अलफ़ाज़ के लिए एक बार फिर से शुक्रिया |
उम्मीद करता हूँ आईंदा भी नज़रें इनायत होती रहेंगी |


साभार !!

हर्ष महाजन

Comment by Harash Mahajan on July 26, 2015 at 8:13pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी बहुत दिनों से आप सबकी कृतियों को देखा है उनके भाव समझने की भी बहुत कोशिश की है है ....मुझे बहुत ख़ुशी हुई के आपकी कलम से कुछ शब्द मेरी रचना पर उतरे | दिल से आभार व्यक्त कैसे करूँ समझ नहीं आता | ग़ज़ल आपको पसंद तो यकीन जानिये नेरी म्हणत सफल हुई और आपके मशवरे का आगे से ख्याल रखूंगा | गुजारिश है आप इसी तरह राह दिखाते हुए हौंसिला अफजाई करते रहिएगा  और नज़रें करम बनाये रखियेगा | बहुत बहुत शुक्रिया |

साभार


हर्ष महाजन

Comment by Harash Mahajan on July 26, 2015 at 8:06pm

आदरणीय Samar kabeer जी आपकी इस्लाह के लिए मेरे पास शब्द नहीं कि क्या कहूँ ..... दोष मुक्त करते हुए आपने इस नाचीज़ की  रचना  को मान दिया और इसके के ज़रिये बहुत कुछ दे दिया .... जिस तरह खोल कर हर चीज़ को समझाया है दिल तक पहुंची है..आपकी दी हर राय पर अगली रचना में ध्यान रखने की कोशिश करूंगा | आपसे  अनुरोध है अपना हाथ ऐसे ही बनाए रखियेगा , बहुत बहुत शुक्रिया |

साभार !!!

हर्ष महाजन

Comment by kanta roy on July 26, 2015 at 2:18pm
मन को छूकर निकली है यह दर्द की लहर । हर पंक्ति हर शेर में एक कशिश सी है । क्या सुंदर अल्फाज़ सजाये है आपने अपने जख्में जिगर के कि सच ही लगा है
इस कदर रोया हूँ मैं, आँखें भी धुंधला सी गई,
आज चंद बूँदें भी आँखों से निकलती ही नहीं ...... वाह ! वाह ! ........ बधाई स्वीकार करें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 26, 2015 at 12:05pm

आदरणीय हर्श भाई , गज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाई । आदरणीय समर भाई की इस्लाह क़ाबिले ग़ौर है , ख्याल कीजियेगा ।

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