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क्यूँ आज फिर घेर रहे,सन्नाटे मुझे?
क्यूँ उठ रहे बवंडर,यादों के?
क्यूँ ले रहे गिरफ़्त में अपनी?
जिनसे दूर बहुत,निकल आई हूँ मैं,
जिन्हें दबा चुकी ,बहुत गहरा
अरमानों के कब्रिस्तान में,
क्यूँ जकड़ रहे फिर आज?
मानो कि यकीन हूँ ज़िंदा।
हूँ महज़ इक बुत,चलता-फिरता।
बेजान बेज़ार सी ज़िन्दगी हलचल से दूर,
ढो रही हूँ बोझ,जिस्म का,
चुका रही हूँ कर्ज,साँसों का।
क्यूँ दिखाता है खुदा ख्वाब?
कभी जो पूरे हो नही सकते ,
क्यूँ देता है फलने-फूलने,
फिर सूख कर मुर्झाने?
क्यूँ कर देता है इस कदर बेकरार
किसी एक की ख़ातिर,
जिसे खोना ही लिखा था,
तक़दीर में हमारी ?
टूटे हुए ख्वाबों की किरचें
चुभती हैं गहरे इतने
यादों का नश्तर
हर लम्हा मारता है,मौत हज़ार ,
हो चला है दर्द बर्दाश्त से बाहर।
जी चाहता है दे दूँ जान,
दीवारों से सर टकराकर।

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by Dr. Vijai Shanker on May 6, 2015 at 4:29am
सच है, यादों के बवंडर बहुत कष्ट देते हैं, कष्टों को बयाँ करती एक खूबसूरत प्रस्तुति, बधाई , आदरणीय सुश्री ज्योत्स्ना कपिल जी , सादर।
Comment by मनोज अहसास on May 6, 2015 at 12:06am
बेहद की पीड़ा का काव्य
बहुत खूब
सादर

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