For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

हनोज दिल्ली दुरअस्त ( इतिहास-कथा ) - डा0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव

‘सुना है औलिया से आपका बड़ा याराना है ?’

        विजय के उन्माद में झूमते हुए सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक ने अमीर खुसरो से कहा I बादशाह की फ़ौज युद्ध में विजयी होकर दिल्ली की ओर वापस हो रही थी I सुल्तान तुगलक एक लखनौती हाथी पर सवार था I अमीर् खुसरो बादशाह के बगलगीर होकर दूसरे हाथी पर चल रहे थे I

‘तौबा हुजुर ---‘ खुसरो ने चौंक कर कहा “आप भी लोगो के बहकावे में आ गए सुल्तान I वह मेरे पीर-ओ-मुर्शिद हैं I मै उनका अदना सा शागिर्द हूँ I ’

‘तो क्या सचमुच तुम दोनों में बस यही सम्बन्ध है इसके अलावे और कुछ नहीं ?’ –बादशाह ने व्यंग से कहा I

‘और क्या सम्बन्ध हो सकता है हुजूर, वह औलिया है फ़कीर है अल्लाह के बन्दे है I मेरा उनसे और क्या सम्बन्ध हो सकता है I’

‘पर माँ-बदौलत ने सुना है तुम दोनों साथ-साथ सोते हो I’-बादशाह के चेहरे पर कटु मुस्कान थी I साथ आ रहे जिन दरबारी अमीरों ने यह बात सुनी ,वह बेसाख्ता हंस पडे I उन्हें बादशाह की मौज का पता चल गया I

‘आपने सच सुना है, हुजूर I  मै जब दिल्ली में होता हूँ तो उनके पास ही रहता हूँ और सोता भी हूँ I

      इस स्पष्ट उत्तर से बादशाह को फिर आगे कुछ कहना उचित नहीं जान पड़ा I कुछ देर चुप रहकर उन्होंने फिर खुसरो से कहा –‘तुम जानते हो खुसरो हम  सूफियो को पसन्द नहीं करते I तुम में भी अगर इल्मी शऊर न होता तो हम तुम से भी नफ्ररत करते I

‘हुजूर इस नफ़रत की कोई वजह तो होगी ?’

‘बिलकुल है I सूफी मजारो की पूजा करते है I इश्के-मजाजी से इश्के- हकीकी तक पहुँचने का दावा करते है I यह नामुमकिन भी है और इस्लाम के खिलाफ भी I’

‘सुल्तान हुजूर, आप एक बार निजाम सरकार से मिल लीजिये I वह आपको मुझसे बेहतर समझा पायेंगे I’

‘नामुमकिन ! माँ-बदौलत उनकी सूरत तक नहीं देखना चाहते I’   

        खुसरो चुप हो गए I आगे कुछ कहना सुल्तान की नफरत की आग में आहुति देने जैसा था, पर गयासुद्दीन  को सनक चढ़ चुकी थी I उन्हें अब खुसरो की उपस्थिति भी नागवार लगने लगी I

‘मियाँ खुसरो ---!’ अचानक सुल्तान ने सरगोशी की I

‘हुकुम करे हुजूर ‘

‘अफगानपुर आने वाला है I हमारी  जीत की खुशी में यहाँ मेरे फरजंद  मुहम्मदशाह ने आनन -फानन में एक महल तामीर कराया है I वह वहां हमारे  इस्तकबाल के लिये पहले से मौजूद है I हम और हमारी फ़ौज वहां जश्न मनायेगी I  इस बीच तुम किसी तेज घोड़े पर सवार होकर दिल्ली पहुँचो और अपने निजाम से जाकर कहो कि मा-बदौलत के दिल्ली पहुंचने से पहले वह कही बाहर तशरीफ़ ले जायें I हम उन्हें दिल्ली में अब और बर्दाश्त नही कर सकते I’

       यह खुसरो पर सीधा वार था I पर क्या हो सकता था I सुल्तान का हुक्म था I खुसरो को बुरा तो लगा पर उन्होंने अपने मनोभाव छिपा लिए और प्रकट में विनम्र होकर आज्ञा स्वीकार की –‘जो हुक्म सुल्तान अभी बजा लाता हूँ I‘  

  •                      *                      *

            अफगानपुर का महल बहुत विशाल था I  मुहम्मदशाह ने पिता के स्वागत की पूरी तैयारी कर रखी थी I सुल्तान ने वहां एक बड़ा दरबार लगाया I जीत में प्राप्त धन सैनिक और अधिकारियो में वितरित किये I बेटे को नायब हीरो के हार से नवाजा I दरबार में मदिरा-पान हुआ I रक्काशा के नृत्य हुए I सुल्तान ने उत्साह में आकर आदेश दिया कि महल के इस विशाल प्रांगण में लखनौती हाथियों की एक दौड़ आयोजित की जाये I सब महावत इसकी तैयारियों में लग गए  I देर रात तक  इसी प्रकार जश्न होता रहा I 

      दरबार भंग कर सुलतान तुरंत उस स्थल पर पहुंचे जहाँ शाही भोज के लिए विशाल दस्तरख्वान बिछा था I सुलतान अब बुरी तरह थक चुके थे I  उन्होंने आगे बढ़ते हुए दीवाल का सहारा लिया और ठिठक गए I

‘महल की दीवाले गीली है क्या ?’-सुलतान ने आश्चर्य से चीखते हुए कहा  I

‘अब्बा हुजूर ---‘- मुहम्मद शाह ने तुरंत सफाई दी –‘ अभी नया-नया तामीर  हुआ है I  पुताई भी अभी पूरी तरह सूखी नही है I’

‘हाँ , तभी माँ- बदौलत के हाथ गीले हुए I’- सुल्तान ने संतोष की सांस ली –‘चलो पहले हाथ साफ करते है फिर दस्तरख्वान पर बैठते है I’

      अचानक एक दिशा से तेज हवाये आने लगी  I अफगानपुर में शोर उठा –गजब का तूफ़ान आ रहा है I  सब लोग अपने-अपने घरो में पनाह ले I महल से कोई बाहर न निकले I यह सुनकर सुलतान की सुस्ती काफूर हो गयी I  उन्होंने कड़क कर पूंछा – ‘सब लोग भाग क्यों रहे है ?  यह अंधड़ की आवाजे आ रही है क्या ?’

‘अब्बा हुजूर, आप नाहक फिकरमंद है I’ - मुहम्मद शाह ने पिता को फिर आश्वस्त किया –‘पूरा अफगानपुर जाग रहा है I लोग जश्न मना रहे है तो इधर-उधर भागेगे ही I यह जो अंधड़ की आवाज लगती है यह हाथी-दौड़ की आवाज है I आपके हुक्म की ही तामील हो रही है I’

‘ओह ---तब ठीक है I माँ-बदौलत बेवजह ही फिक्रमंद हो गए थे I’-बादशाह शान्त तो हो गए पर मन में शंका बनी रही I उन्होंने सोचा रात बहुत  बीत चुकी है I कल सुबह ही दिल्ली के लिए कूच भी करना है I आराम की कौन कहे अभी पेट में निवाले तक नही गये I अभी यह मंथन चल ही रहा था कि वजीर ने आकर अदब से सूचना दी –‘हुजूर, दस्तरख्वान सज गया है I सभी मोहतरम आ चुके है I बस अब आप जलवा-अफरोज हों I सुलतान तुरंत उठ खड़े हुए I     

       अंधड़ जैसी आवाजे अभी भी आ रही थी I ‘हाथी-दौड़ चल रही है’ –सुल्तान ने सोचा I

  •                      *                      *

             जिस समय सुलतान दस्तरख्वान पर जलवा अफरोज हुए ठीक उसी समय अमीर खुसरो लंबा सफर तय कर निजामुद्दीन औलिया के खानकाह में पहुंचे I औलिया उस समय गहरी नींद में थे I उनके चेले-चपाटे भी इधर-उधर बेसुध पड़े थे I  घोड़े को खुसरो ने एक पेड़ के नीचे बाँध दिया I पर उनकी  समझ में नहीं आया के वे अपने उस्ताद को जगाएं या उनके उठने का इन्तेजार करे I फजर की अजान होने में अभी कुछ समय बाकी था I खुसरो निजाम के पास जाकर चुपके से लेट गये I कुछ देर सन्नाटा छाया रहा I अचानक निजाम की आवाज सुनायी दी

‘खुसरो बेटा तुम आ गये ?’

‘हां मेरे मौला, मै आ गया I’

‘बड़े बेवक्त आये I सुल्तान ने तुम्हे चैन नहीं लेने दिया I’

‘हाँ, लडाई में फ़तेह हासिल हुयी है I घमंड और बढ़ गया है I’- खुसरो ने थके हुए स्वर में कहा –‘उन्होंने आपके लिए एक पैगाम भेजा है i पर उसे कहते मेरी जीभ जलती है I’

‘हां, वह चाहते है कि उनके आने से पहले मै दिल्ली छोड़ दूं I’

‘मेरे मुर्शिद आप तो सब जानते है I यह सुल्तान बड़ा जालिम है I वह यहाँ आकर आपकी बेइज्जती करे I यह हमें गवारा नहीं I चलिये मेरे पीर, हम दिल्ली छोड़ देते है I’

‘तू मेरी चिंता मत कर खुसरो I मेंरा रखवाला तो मेरा पिया है I लेकिन बादशाह के लिये  --?’

‘बादशाह के लिये क्या निजाम सरकार ?’  

‘हनोज दिल्ली दुरअस्त--- “- निजाम के चेहरे पर गम्भीरता थी I

            इसी समय अजान-ए-फजर की तेज आवाज फिजां में गूँज उठी I अमीर खुसरो को मुख खुला का खुला रह गया I निजाम पीर यह क्या कह रहे हैं – सुल्तान के लिए दिल्ली अभी दूर है I इस जुमले की हकीकत क्या है ? निजाम का इशारा किस तरफ है ? खुसरो अभी सोच ही रहे थे कि निजाम ने पुकारा – ‘चलो खुसरो नमाज पढ़कर आते है I’

  •                      *                      *

          औलिया का खानकाह सजा हुआ था I खुसरो और अन्य शागिर्द पीर-ओ-मुर्शिद के सामने अदब से बैठे थे i निजाम ने कहा –‘खुसरो कुछ नया कहो I आज कुछ सुनने का जी चाहता है I’ खुसरो थके थे और अज्ञात कारणों से कुछ उदास भी लग रहे थे I पर पीर की बात टालना संभव न था  I  उन्होंने पखावज के दो टुकड़े कर एक नया साज ‘तबला’ बनाया था  I  वह धीरे-धीरे उसे बजाने लगे फिर उन्होंने सूफियाना कलाम पेश किया-

   ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल  दुराये नैना बनाये बतियाँ
   कि ताब-ए-हिज्राँ न दारम ऐ जाँ न लेहु काहे लगाये छतियाँ

      तबले की थाप I खुसरो की सोज आवाज I खानकाह का संजीदा माहौल और शास्त्रीय संगीत में ढली स्वर लहरी I सारा वातावरण रूहानी आजेब से भर गया I लोग मस्ती में झूमने लगे I  खुसरो ने जैसे ही आलाप भरा –‘सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ’ - औलिया की आंखो से आंसू झरने लगे I

       इसी समय खानकाह के बाहर भारी शोर सुनायी दिया I लोगो के चीखने और चिल्लाने की आवाजें आने लगी I खुसरो का गान रुक गया I तभी एक शागिर्द बाहर से बदहवास भागता हुआ अन्दर आया और चिल्लाकर बोला –‘गजब हो गया औलिया सरकार, सुल्तान  गयासुद्दीन तुगलक नहीं रहे I अफगानपुर से खबर आयी है कि सुलतान के इस्तकबाल के लिए जो महल मुहम्मदशाह ने बनवाया था वह भयानक तूफ़ान के कारण ढह गया और सुलतान उसके नीचे दब गये I अचानक खुसरो का दिमाग सक्रिय हो उठा I उन्हें ‘हनोज दिल्ली दुरअस्त--- “ का सही अर्थ अब समझ में आया I उन्होंने मन ही मन निजाम के पहुंच की दाद दी I

‘क्या कहते हो बिरादर, महल ढह गया I यह कैसे मुमकिन है I  अभी नया तामीर हुआ था I खुद सुलतान के बेटे ने बनवाया था i’-खुसरो ने आश्चर्य से कहा I

‘मेरे पिया का हर काम निराला I’-निजाम ने आसमान की ओर हाथ फैलाकर कहा I

‘तो क्या तूफ़ान इतना भयंकर था या फिर इमारत कमजोर थी ?’

‘यह तो पता नहीं पर कुछ लोगो का कहना है सुल्तान ने महल के आंगन में हाथी-दौड़ भी करवाई थी I शायद उसकी वजह से महल ढह गया I’

‘तब तो और लोग भी मरे होंगे ‘

‘हाँ बहुत से अमीर-उमरा मारे गये है कुछ घायल है पर खुदा का शुक्र है मुहम्मदशाह साफ़ बच गये है I’

‘पीर बाबा,  यह मुहम्मदशाह को नया महल तामीर करने की क्या सूझी I  इसकी कोई आवश्यकता तो थी नहीं I’

‘पिया की मर्जी तो थी न खुसरो ?’

‘यह हादसा कब हुआ ?’ खुसरो ने समाचार लाने वाले से पूछा I

‘कहते है खाना खाने के बाद सुल्तान हाथ धोने के लिए रुक गए थे

तभी छत टूट गयी I

‘तो क्या और लोग बाहर आ चुके थे ?’

‘हा जो बाहर आ गए थे वह बच गये I’

‘मसलन मुहम्मदशाह --?

‘बेशक ---‘

‘पीर बाबा, यह क्या माजरा है ?’-खुसरो ने निजाम से पूछा I 

पिया की बाते पिया ही जाने और न जाने कोय ‘-इतना कहकर  निजाम गाने लगे - –‘सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ’

       शागिर्द और पीर–ओ-मुर्शिद की आंखे धीरे-धीरे बंद होने लगी I वे रूहानी मस्ती मे झूमने लगे I कुछ सूफियाना बेखुदी में नाचने लगे फिर उनकी आँखों से प्रेम की धारा बहने लगी I

(मौलिक व् अप्रकाशित)                                                                      ई एस -1/436, सीतापुर रोड योजना कालोनी

                                                                                                                         अलीगंज , सेक्टर-ए , लखनऊ 

                                                                                                       मो0  9795518586

                                                                                      

                                                                                   

Views: 1205

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 16, 2015 at 9:02pm

आ० अनुज भंडारी जी

आपका स्नेह सदैव प्रेरणा देता है . सादर .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 16, 2015 at 9:01pm

आ० शिज्जू भाई

आपसे संस्तुति पाकर मन आनंदित हुआ सादर .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 16, 2015 at 9:00pm

आ 0 नीरज जी

बहुत बहुत आभार .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 16, 2015 at 9:00pm

आ० मठपाल जी

आपका सादर आभार .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 16, 2015 at 8:59pm

आ० हरि  प्रकाश जी

पिया की बातें पिया ही जाने और न जाने कोय

समदर्शी है पिया हमारे जो चाहें सो होय

सादर .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 16, 2015 at 8:57pm

आ० खुर्शीद खैराडी  जी

आपका अभिनन्दन .  सादर .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 16, 2015 at 8:56pm

आ० मोहन सेठी जी

आपका सादर आभार .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 16, 2015 at 8:55pm

आदरणीय सौरभ जी

आपका आशीष ही मेरा पाथेय है .  सादर .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 16, 2015 at 8:54pm

आ० विजय सर !

आपने सच  कहा और इसी मुहम्मद तुगलक को इतिहास ने  wisest fool भी कहा है . आप जानते ही हैं . सादर.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 16, 2015 at 8:52pm

आ० महर्षि जी

सादर आभार .

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"बहुत सुंदर अभिव्यक्ति हुई है आ. मिथिलेश भाई जी कल्पनाओं की तसल्लियों को नकारते हुए यथार्थ को…"
Friday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय मिथिलेश भाई, निवेदन का प्रस्तुत स्वर यथार्थ की चौखट पर नत है। परन्तु, अपनी अस्मिता को नकारता…"
Thursday
Sushil Sarna posted blog posts
Wednesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार ।विलम्ब के लिए क्षमा सर ।"
Wednesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया .... गौरैया
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी । सहमत एवं संशोधित ।…"
Wednesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .प्रेम
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन पर आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभार आदरणीय"
Jun 3
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .मजदूर

दोहा पंचक. . . . मजदूरवक्त  बिता कर देखिए, मजदूरों के साथ । गीला रहता स्वेद से , हरदम उनका माथ…See More
Jun 3

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सुशील सरना जी मेरे प्रयास के अनुमोदन हेतु हार्दिक धन्यवाद आपका। सादर।"
Jun 3
Sushil Sarna commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"बेहतरीन 👌 प्रस्तुति सर हार्दिक बधाई "
Jun 2
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन पर आपकी समीक्षात्मक मधुर प्रतिक्रिया का दिल से आभार । सहमत एवं…"
Jun 2
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
Jun 2
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन आपकी स्नेहिल प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
Jun 2

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service