गज़ल : झूठ से इसको नफरत सी है
झूठ से इसको नफरत सी है सच्चाई को प्यार कहे ,
मेरा दिल तो जब भी बोले दो और दो को चार कहे |
मर खप कर एक बाप जुटाता बेटी का दहेज ,
लेने वाले की बेशर्मी वो इसको उपहार कहे |
भ्रष्टाचार घोटालों के पहियों पर रेंग रही ,
लानत है उस शख्स पे जो इसको सरकार कहे |
जैसी करनी वैसी भरनी अब नहीं दीखता है ,
हम कैसे इस बात को माने कहने को संसार कहे |
मूंगे मोती मेवे से चाहे भर दो जितना ,
सागर से आयी हर मछली जार को जार कहे |
हमें आईना दिखलाते हैं गिनती के अशआर ,
यूं तो बीते एक दशक में हमने शेर हज़ार कहे |
मोबाईल इंटरनेट के युग में सब बदल गया ,
नहीं रहा वो दौर डाकिया आया तार कहे |
{ये गज़ल आज - कल ( २४-२५ फरवरी २०११ को ) तरही -०८ के लिये लिखी थी , पर लगा गज़ल के व्याकरण के हिसाब से वहाँ के लिये उपयुक्त नहीं अतः यहाँ दे रहा हूँ }
Comment
अरुण जी,
मुझे भी ग़ज़ल में बहर आदि का ज्ञान नहीं. आपके साथ मैंने भी आदरणीय तिलक राज जी की पाठशाला में एडमिशन ले लिया है. बाकी, मेरे हिसाब से तो किसी भी काव्य रचना के लिए (चाहे ग़ज़ल हो या कोई कविता), 'मज़बूत ख़याल' पहली प्राथमिकता होनी चाहिए और आपकी रचनाओं में यह हमेशा मिलता है. यूँ ही लिखते रहें हमेशा.
एक शेर और जो इसे सात शेरो वाली ग़ज़ल बना देगा -
हमें आईना दिखलाते हैं गिनती के अशआर ,
यूं तो बीते एक दशक में हमने शेर हज़ार कहे |
आदरणीय वंदना जी मेरा उत्साह बढाने का शुक्रिया !! श्री बागी जी मुझे भी कुछ शेर इसके पसंद आये मगर खुद को ही लगा कहीं कोई कमी सी है सो वहाँ देना उचित नहीं लगा !!! आप सब का स्नेह बना रहे , कलम चलती रहे यही काफी है |
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