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ढूँढता हूँ कब से

ढूँढता हूँ कब से मुझमे मुझसा कुछ तो हो

सोच हो, आवाज़ हो, अंदाज़ हो, ना कुछ सही सबर तो हो

 

क्यूँ करूँ परवाह खुद की संग क्या ले जाना है

बिन बुलाये आए थे हम बिन बताए जाना है

क्यूँ बनाऊ मैं बसेरा डालना कहाँ है डेरा

जिस तरफ मैं चल पड़ा हूँ उस गली है बस अंधेरा

 

क्या करूँ तालिम का मैं बोझ सा है पड गया

है सलिका खूब इसमे, पर, सर पर मेरे चढ़ गया

इसकी लिबास में मैं  दब के जैसे रह गया

आरजू उड़ने की थी पर रेंगता ही रह गया

 

कोठियाँ ये गाडियाँ सब मेरे है किस काम की

उम्र एक बीता दी हमने भूख में सिर्फ नाम की

पर मिला न वो सिला जिसके हम शरमाये थे

जिसके खातिर कल तलक हम होश भी गवाएँ थे

 

क्या करे हम धन का बोलो जो कभी टिकता नहीं

कौन ऐसा है जहां में जो कभी बिकता नहीं

पर बताओ क्या कभी आवाज़ बिकती है भला

छप गयी जो गीत बनके है कभी मिटती भला

 

मैं ना होऊंगा देखना तुम बोल ये रह जाएंगे

मेरे जाने के बाद लोग मेरे गीत गुनगुनाएँगे

तब कहीं मिलेगा मुझको मेरे हिस्से का सुकून

जब कभी मुझे ढूंढते सब घर पर मेरे आएंगे

 

होगा तब भी हाल ऐसा कुछ बदल ना जाएगा

दफन करके जिस्म को फिर रूह मेरा जाएगा

सिलसिला चलता रहेगा जब तलक थकता नहीं

लफ्ज़ बनकर पन्नों पर ये जब तलक छपता नहीं

"मौलिक व अप्रकाशित" 

अमन सिन्हा 

 

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Comment

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Comment by AMAN SINHA on August 8, 2023 at 4:21pm
आदरणीय रवि शुक्ला साहब,

मैं किसी भी विधा से परिचित नहीं | किसी भी "विधा और "अरकान" का ज्ञान मुझे नहीं| अतः इस अज्ञानता के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ|
Comment by Ravi Shukla on August 8, 2023 at 2:34pm

आदरणीय अमन मंच पर आज जितनी रचनाएं अभी तक पढ़ कर टिप्पणी कर पाया हूँ उनमें से किसी में भी रचनाासे पूर्व उसका अरकान / बहर लिखी नहीं दिखाई  दी मुझे जिससे कुछ अनुमान नहीं हो पाया आपकी की रचना को किस विधा में रखा जाए । प्रयास के  लिये बधाई 

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