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आजकल कोई बुलाता भी नहीं।

आजकल मैं भी कहीं जाता नहीं

आजकल हर ओर है बदली फिज़ा

आजकल गायब है चेहरे से गीज़ा॥

 

आजकल कुछ भी सुहाता ही नहीं।

आजकल मैं गुनगुनाता भी नहीं

आजकल बदले हुए हालात हैं

आजकल मैं मुस्कुराता भी नहीं॥

 

आजकल बेकार है सब कोशिशें।

आजकल हैं लग रही बस बंदिशें

आजकल अपने ही छलते हैं यहाँ

आजकल हैं सब बहुत बस परेशां॥

 

आजकल वादों की ही भरमार है।

आजकल गैरों के सर पे हाथ है

आजकल बस टूटता विश्वास है

आजकल जहरीली होती श्वांस है॥

 

आजकल कुछ भी समझ आता नहीं।

आजकल मिलता मिलाता भी नहीं

आजकल उल्टी ही पड़ती चाल है

आजकल अपने ही बनते काल हैं॥

-प्रदीप भट्ट- मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Shlesh Chandrakar on December 1, 2018 at 4:00pm

बहुत सुंदर, प्रदीप जी, आजकल

Comment by Samar kabeer on December 1, 2018 at 3:16pm

जनाब प्रदीप भट्ट साहिब आदाब, नज़्म का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'  आजकल गायब है चेहरे से गीज़ा'

इस मिसरे में 'गीज़ा' शब्द ग़लत है,सहीह शब्द है "ग़िज़ा" ।

आजकल वादों की ही भरमार है।

आजकल गैरों के सर पे हाथ है'

इन मिसरों में तुकांतता नहीं है ।

'आजकल कुछ भी समझ आता नहीं।

आजकल मिलता मिलाता भी नहीं'

इन मिसरों में भी तुकांतता नहीं है ।

'  

आजकल उल्टी ही पड़ती चाल है

आजकल अपने ही बनते काल हैं'

इन मिसरों में भी तुकांतता नहीं,ऊपर 'है' नीचे "हैं" ग़ौर करें ।

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