For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) 37

कल से आगे .................

अयोध्या में धोबियों के मुखिया धर्मदास के पिता का श्राद्ध था। श्राद्ध कर्म तो पुरोहित को करवाना था किंतु भोज के लिये वह नाक रगड़ कर जाबालि से भी निवेदन कर गया था। जाबालि ने स्वीकार भी कर लिया था। शूद्रों की बस्ती में उत्तर की ओर धोबियों के घर थे। अच्छी खासी बस्ती थी - करीब ढाई सौ घरों की। घर की औरतें प्रतिदिन सायंकाल द्विजों के घरों में जाकर वस्त्र ले आती थीं और दूसरे दिन पुरुष उन्हें सरयू तट पर बने धोबी घाट पर धो लाते थे। बदले में उन्हें जीवन यापन के लिये पर्याप्त सामग्री मिल जाती थी। यह त्रेता युग था। इसमें कलियुग के मध्यकाल या उत्तर मध्यकाल की भांति शूद्रों को अपमान जनक स्थिति में नहीं जीना पड़ता था। द्विजों को उनकी छाया से कोई परहेज नहीं था। यहाँ तक कि अतिवृद्ध शूद्रों को द्विजों की भांति ही सम्मान मिलता था। मार्ग में कोई वृद्ध शूद्र आ रहा होता था तो युवा और प्रौढ़ द्विज उसे सम्मान से मार्ग दे देते थे।


बंधन था तो मात्र इतना ही कि उन्हें अध्ययन की अनुमति नहीं थी। उन्हें भूमि पर अधिकार नहीं था। उन्हें खेती करने की अनुमति नहीं थी।
कष्टकारी स्थिति जो थी वह थी कि न्याय व्यवस्था उनके प्रति अत्यंत कठोर थी। किसी द्विज के प्रति, विशेष कर किसी ब्राह्मण के प्रति अपराध करने पर कठोर दंड का प्रावधान था। यह दंड मृत्युदंड तक हो सकता था - छोटे-छोटे अपराधों तक में भी। दूसरी ओर द्विजों द्वारा उनके प्रति अपराध किये जाने पर अपेक्षाकृत काफी हल्के दंड थे। ब्राह्मणों को तो दंड से विशेष छूट थी। मृत्युदंड तो उन्हें दिया ही नहीं जा सकता था।
धर्मदास धोबियों का मुखिया था। राज-परिवारों में उसकी जिजमानी थी। राजा, पुरोहित, मंत्री आदि परिवारों के वस्त्र धोने का काम उसके परिवार का था। इन समृद्ध परिवारों से प्रतिकर भी अच्छा मिलता था। कुल मिला कर बहुत अच्छे से गुजर हो रही थी।


भोज के दिन यथासमय आमात्य जाबालि आ गये। उनके साथ दो ब्राह्मण और थे। पहले धर्मदास और उसके पीछे पूरे परिवार ने तीनों ब्राह्मणों को साष्टांग दंडवत कर उन्हें प्रणाम किया। जाबालि सहित सबने प्रसन्न मन से उन्हें आशीष दिया तदुपरांत एक सोलह वर्षीय किशोर ने उनके पैर धोकर उन्हें आम की लकड़ी की बनी बिलकुल नई पीठिकाओं पर आसन ग्रहण करने का निवेदन किया। गोबर से लिपे बड़े से कच्चे आँगन में, रसोई के बाहर ही इन लोगों के बैठने की व्यवस्था थी। तीनों के सामने वैसी ही नई किंतु थोड़ी सी ऊँची पीठिकायें और रखी थीं। उन पर केले के पत्तों पर उन्हें सुस्वादु भोजन परोसा गया। भोजन यद्यपि सादा था किंतु वाकई स्वादिष्ट था जो घर की गृहणियों की कुशलता का परिचायक था। भोजनोपरांत यथाशक्ति दक्षिणा समर्पित कर पुनः सबने उन्हें साष्टांग दंडवत किया।


जाबालि इस पूरे आयोजन में उस किशोर के आचरण से अत्यंत प्रभावित हुये थे। उसकी शिष्टता, उसका बात करने का मधुर ढंग, उसके सलीके से पहले हुये स्वच्छ वस्त्र सबने उन्हें उसकी ओर आकर्षित किया था।
भोजनोपरांत वे शेष दोनों ब्राह्मणों से बोले -
‘‘आप लोग चलिये मुझे धर्मदास से कुछ वार्ता करनी है।’’
जब वे लोग चले गये तो जाबालि हाथ जोड़े खड़े धर्मदास की ओर मुड़े और उस किशोर की ओर इंगित कर पूछा -
‘‘यह तुम्हारा पुत्र है धर्म ?’’
‘‘जी अन्नदाता। यह बड़ा है, इसके बाद दो पुत्र और तीन पुत्रियाँ और हैं।’’
‘‘क्या करता है यह ?’’
‘‘धोबी का बेटा क्या करेगा मालिक, वही पारिवारिक कार्य करता है।’’
‘‘इसे पढ़ने क्यों नहीं भेजते ?’’
‘‘मालिक शूद्र के बेटे के भाग्य में कहीं पढ़ाई होती है ! कौन पढ़ायेगा इसे ?’’
‘‘इसकी इच्छा है पढ़ने की ?’’
‘‘जी गुरुदेव ! बहुत इच्छा है।’’ यह आवाज शंबूक की थी।
‘‘यह तो मालिक अक्सर किसी न किसी गुरुकुल के बाहर घूमता रहता है। ब्रह्मचारी जब बाहर निकलते हैं तो उनके पीछे लग लेता है। उनकी हर प्रकार सेवा करता है और उनसे बातचीत की कोशिश करता है।’’ धर्मदास ने पुत्र की बात को और आगे बढ़ाते हुये कहा।
‘‘तो फिर भेजो इसे मेरे पास - इसी एकादशी को इसका उपनयन कर इसे मैं दीक्षित करूँगा।’’ जाबालि ने धर्मदास से कहा फिर शंबूक की ओर मुड़ कर बोले - ‘‘आओगे ?’’
‘‘जी गुरुदेव अवश्य !’’ शंबूक पुनः उनके पैरों मे पड़ गया था ‘‘क्यों नहीं आऊँगा ! आप तो भगवान हैं हमारे, भगवान का आदेश भला टाला जा सकता है !’’
धर्मदास की आँखों से आँसू बहने लगे थे। उसे समझ में नहीं आ रहा था क्या कहे। यह तो ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी थी जिसकी उसने सपने में भी कल्पना नहीं की थी। आँसुओं को पोंछता भरे कंठ से वह बोल पड़ा -
‘‘कोई समस्या तो नहीं उठ खड़ी होगी मालिक ?’’ स्वयं आमात्य जाबालि के आश्वासन के बाद भी आशंकायें उसे घेरे थीं, आर्यावर्त में शूद्र का अध्ययन अकल्पनीय बात थी।
जाबालि जो पैरों में पड़े शंबूक को उठा रहे थे उसकी इस बात पर हँस पड़े। बोले -
‘‘समस्या ? समस्या कैसे उठेगी धर्म ? उठेगी भी तो वह जाबालि की समस्या होगी न कि तुम्हारी या शंबूक की।’’
‘‘मालिक यह तो नादान है। यह अभी विधान के बारे में कुछ नहीं जानता। पर आप तो जानते ही होंगे। शूद्र का विद्या पढ़ना तो बड़ा अपराध गिना जायेगा। कहीं इसकी जान पर ही न बन आये !’’
‘‘तुम्हें क्या लगता है धर्म, क्या गुरुदेव वशिष्ठ और जाबालि की सहमति के बिना भी कोई दंड निर्धारण हो सकता है ?’’ उसी भाँति हँसते हुये जाबालि बोले -‘‘तुम चिंता मत करो। मैं स्वयं तो आमंत्रण दे ही रहा हूँ और ब्रह्मर्षि वशिष्ठ भी कूप मंडूक नहीं हैं। एकादशी को प्रातः ही इसे मेरे पास भेज देना। वहीं मेरे गुरुकुल में ही विधान से इसका यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न होगा।’’

‘‘जी आमात्य।’’ हाथ जोड़े धर्मदास ने कृतज्ञता से गीली आँखों की कोरों को पोंछते हुये कहा।
जाबालि चले गये किन्तु उन्हें पता नहीं मालूम था या नहीं कि वे कितनी बड़ी कलह का कारण छोड़े जा रहे हैं धर्मदास के घर में। उनके जाते ही शंबूक की माता बिगड़ उठी। उसे शंबूक का गुरुकुल जाना किसी कीमत पर स्वीकार्य नहीं था। उसे असंख्य आशंकायें थीं ब्राह्मणों की ओर से। महामात्य कहाँ-कहाँ उनके साथ खड़े रहेंगे। ब्राह्मणों और अन्य द्विजों का विरोध हर जगह झेलना पड़ेगा उन्हें। और फिर बिरादरी ! उसका क्या रुख होगा ? कहीं बिरादरी ने उन्हें बिरादरी से बाहर कर दिया तो कैसे जियेंगे वे ? क्या करेंगे ? क्या उसमें भी महामात्य उन्हें त्राण दिला पायेंगे ? फिर महाराज्य क्या दृष्टिकोण अपनायेंगे इस विषय में। सबसे बड़े दंडाधिकारी तो वे ही हैं। वे तो परंपराओं के भक्त हैं। वे कैसे अनुमति देंगे ?
एक बहस यह झगड़ा एकादशी को शंबूक के प्रस्थान तक चलता ही रहा। यदि शंबूक की माता अडिग थी अपनी बात पर तो अडिग धर्मदास और शंबूक भी थे। उनके कुल में पहली बार किसी को वेदाध्ययन का सौभाग्य प्राप्त हो रहा था। यदि शंबूक वेद पढ़ गया तो उनकी सारी पीढ़ियाँ तर जायेंगी। कैसे छोड़ दें ऐसे अवसर को। दुबारा क्या ऐसा अवसर मिलेगा भी ? और फिर यदि शंबूक ने मना कर दिया तो महामात्य क्या सोचेंगे ? वे इसे अपना अपमान नहीं समझेंगे ?
बिरादरी में इस मसले पर दो गुट हो गये थे। कुछ लोग थे जो धर्मदास और शंबूक के दृष्टिकोण से सहमत थे किंतु अधिकतर तो विरोध में ही थे। महिलायें तो जैसे सारी की सारी ही विरोध में थीं। अच्छी बात एक ही थी कि पंच अधिकांश धर्मदास से सहमत थे इसलिये बिरादरी से बाहर किये जाने का खतरा नहीं था।
जब शंबूक की माँ किसी भी तरह नहीं मानी तो धर्मदास ने अपने पुरुषत्व का प्रयोग किया। उसने दशमी की रात को उसकी खूब ढंग से पूजा कर दी। सारे बच्चे सहमे-सहमे, आँसू बहाते खड़े देखते रहे। किसी की हिम्मत नहीं पड़ी बीच में कुछ बोलने की। पड़ोसियों को इससे कुछ भी लेना-देना नहीं था। धर्मदास के यहाँ भले ही यह कर्मकाण्ड बहुत कम ही होता था किंतु शेष शूद्रों के यहाँ तो यह आवश्यक नित्य कर्म ही था। आज भी तो है।
इस कर्मकाण्ड ने एक आश्चर्यजनक कार्य किया। पड़ोस की तमाम स्त्रियाँ बड़ी प्रसन्न थीं। धर्मदास की औरत भी पिट गयी इससे उन्हें अपार संतोष मिला था। मरद, मरद होता है। उसकी बात तो माननी ही होती है। एक बार गलत हो तब भी माननी पड़ती है फिर ये तो सही ही कह रहा है। वे अप्रत्याशित रूप से अचानक शंबूक के गुरुकुल जाने की पक्षधर बन गयीं।
अंततः एकादशी को शंबूक अपने विद्यार्जन के अभियान पर निकल ही पड़ा।

क्रमशः

मौलिक एवं अप्रकाशित

- सुलभ अग्निहोत्री

Views: 576

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Sulabh Agnihotri on July 31, 2016 at 12:14pm

आभार आदरणीया  pratibha tripathi Ji! कथा तो नियमित चल रही है। कृपया किसी दिन एक बैठक में आरंभ से देख डालें तो अधिक आनंद आयेगा। तब समग्र मूल्यांकन भी कर सकेंगी। अभी तो इसमें कई कमियाँ होंगी जिनके संबंध में आप सब लोग मेरा मार्गदर्शन कर सकते हैं।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: उम्र भर हम सीखते चौकोर करना
"वाह बहुत खूबसूरत सृजन है सर जी हार्दिक बधाई"
22 hours ago
Samar kabeer commented on Samar kabeer's blog post "ओबीओ की 14वीं सालगिरह का तुहफ़ा"
"जनाब चेतन प्रकाश जी आदाब, आमीन ! आपकी सुख़न नवाज़ी के लिए बहुत शुक्रिय: अदा करता हूँ,सलामत रहें ।"
yesterday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166

परम आत्मीय स्वजन,ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 166 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का…See More
Tuesday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ पचपनवाँ आयोजन है.…See More
Tuesday
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"तकनीकी कारणों से साइट खुलने में व्यवधान को देखते हुए आयोजन अवधि आज दिनांक 15.04.24 को रात्रि 12 बजे…"
Monday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, बहुत बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"आदरणीय समर कबीर जी हार्दिक धन्यवाद आपका। बहुत बहुत आभार।"
Sunday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"जय- पराजय ः गीतिका छंद जय पराजय कुछ नहीं बस, आँकड़ो का मेल है । आड़ ..लेकर ..दूसरों.. की़, जीतने…"
Sunday
Samar kabeer replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"जनाब मिथिलेश वामनकर जी आदाब, उम्द: रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर posted a blog post

ग़ज़ल: उम्र भर हम सीखते चौकोर करना

याद कर इतना न दिल कमजोर करनाआऊंगा तब खूब जी भर बोर करना।मुख्तसर सी बात है लेकिन जरूरीकह दूं मैं, बस…See More
Saturday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"मन की तख्ती पर सदा, खींचो सत्य सुरेख। जय की होगी शृंखला  एक पराजय देख। - आयेंगे कुछ मौन…"
Saturday
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"स्वागतम"
Apr 13

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service