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राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) 32

कल से आगे ..........

जैसा कि संभावित था, रावण ने अपने बड़े भाई कुबेर का मानमर्दन कर ही दिया। इस विजय ने उसके अहंकार का पोषण करने का कार्य भी किया। सत्ता के साथ सत्ता का मद आना स्वाभाविक ही है। इस मद के अतिरिक्त इस विजय से उसे जो कुछ भी प्राप्त हुआ था उसमें सबसे महत्वपूर्ण था कुबेर का पुष्पक विमान।


रावण ने कुबेर को परास्त करने के बाद अमरावती का राज्य हस्तगत नहीं किया। जैसे बहुत बाद में, ऐतिहासिक मध्य काल में इस्लामी आक्रमण कारी भारत आते थे और लूट का माल समेट कर लौट जाते थे, उसी तरह त्रेता में रावण ने कुबेर का माल समेटा। दरअसल रावण में माल नहीं समेटा, समेटना चाहा भी नहीं। इस पूरे घटनाक्रम में उसकी सम्मति भी नहीं थी किंतु सेना को इससे कैसे रोका जा सकता था। सेना तो विजित क्षेत्र में लूटपाट करना अपना प्रथम अधिकार समझती थी। रावण को तो केवल पुष्पक छीनना ही अभीष्ट था। शेष सेना और सेनापतियों ने क्या लूटपाट की उसे ज्ञात भी नहीं हो पाया। इसमें भी सुमाली की कामयाब कूटनीति हा बहुत बड़ा हाथ था। रावण यदि जान जाता तो शायद इसे रोकने का कोई उपाय अवश्य करता। सुमाली ने सेनापतियों को सेना और प्राप्त समस्त उपहारों समेत लंका लौटने का निर्देश देकर रावण के सम्मुख पुष्पक पर आरूढ़ होकर उस मनोरम क्षेत्र में विहार करने का प्रस्ताव रखा जिसे रावण ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। रावण, सुमाली, महोदर, मारीच, प्रहस्त, शुक, सारण और धूम्राक्ष, इन सात पारिवारिक जनों के साथ पुष्पक पर आरूढ़ होकर कैलाश भ्रमण करने लगा। हिमवान की श्रंखलाओं से सागर पर्यंत समस्त ज्ञात सृष्टि में उस काल में गिनती के ही विमान थे - देवों और लोकपालों के पास। मानव तो केवल इन विमानों की कहानियाँ सुनकर ही संतुष्ट हो जाते थे और इन कहानियों में फिर अपनी कल्पना के पंख लगाते थे। कोई कहता था कि यह विमान इतना बड़ा था कि पूरा नगर समा जाये, कोई बताता था कि इसे चलाने के लिये किसी सारथी की आवश्यकता नहीं थी बस स्वामी ने इच्छा की और पुष्पक चल दिया, जहाँ जाने की इच्छा हुई वहीं पहुँचा दिया। कोई बताता था कि पुष्पक मनुष्य की तरह बात भी करता था, तो कोई कहता था कि यह आवश्यकतानुसार आप ही छोटा-बड़ा हो जाता था और इसकी गति के बारे में तो यह कथा चल निकली थी कि यह मन की गति से चलता था। आपने इच्छा की और पलक झपकते जहाँ जाना था वहाँ पहुँच गये। इसे कहीं खड़ा करने और रखरखाव की भी जरूरत नहीं थी - आपके इच्छा करते ही हाजिर हो जाता था और आपको गन्तव्य पर पहुँचाकर स्वयं अदृश्य हो जाता था। किंतु ये सब केवल कहने की ही बातें थीं।


यह तो कहो कि इस विमान का निर्माता मय दानव, रावण का श्वसुर था। उसकी पत्नी हेमा को देवराज इन्द्र ने बलात स्वर्ग में रोक लिया था। वह महान अभियंता अब एकाकी, वृद्ध था कहाँ जाता, सो लंका में ही एकान्त में निवास कर रहा था। वह अक्सर अपने में ही खयालों में खोया रहता, हेमा के खयालों में या किसी नये निर्माण की रूपरेखा बनाने में यह कोई नहीं जानता। फिर भी कभी-कभी तो रावण के साथ उसकी बैठक होती ही रहती थी और जब भी वह बोलने के मूड में होता पुष्पक की चर्चा अवश्य करता था। उसमें क्या-क्या खूबियाँ हैं, वह कैसे काम करता है आदि-आदि। इसी के चलते रावण को पुष्पक के संचालन के विषय में काफी कुछ ज्ञात था। उसे ऐसा लगने लगा था जैसे पुष्पक उसका अपना ही विमान हो। अगर यह संयोग न रहा होता तो शायद पुष्पक उनके लिये किसी काम का नहीं होता, वे उसे चला ही नहीं पाते तो उसे कुबेर से छीन कर लाते भी कैसे ? यही आधा-अधूरा, सुना-सुनाया ज्ञान आज उनके काम आ रहा था।


तो रावण चल दिया पुष्पक पर सवार होकर कैलाश क्षेत्र की प्राकृतिक सुषमा को निरखने। अब जाकर कहीं उसका मस्तिष्क इस विषय में सोचने लायक हुआ था। कहीं दूर तक हिमाच्छादित पर्वत श्रंग तो कहीं गहरी घाटियों में ऊँचे-ऊँचे वृक्षों का साम्राज्य। अद्भुत दृश्य था, सभी खोकर रह गये उस दृश्य की शोभा में।


अचानक पुष्पक आकाश में एक झटके से एक ही स्थान पर अटक कर रह गया। वह आगे नहीं बढ़ा पा रहा था। जैसे किसी डोर से बँधी पतंग हो, जब तक डोरी में ढील नहीं दी जाती अपनी जगह पर आसमान में तनी रहती है। वह कैसे आगे बढ़े किसी की समझ में नहीं आ रहा था। सबने सारे यत्न करके देख लिये, कोई नतीजा नहीं निकला। कौन सी डोर पकड़े थी पुष्पक को - किसी की समझ में नहीं आ रहा था।
अंततः उसे नीचे उतारना ही श्रेयस्कर समझा गया। सौभाग्य था कि इस कार्य में किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। पुष्पक को सहजता से सुरक्षित नीचे उतार लिया गया। सब लोग उसके कल पुर्जों में जूझने लगे कि आखिर क्या खराबी है, इसे कैसे ठीक किया जाये ? पर कुछ समझ में नहीं आ रहा था। तभी अचानक पीछे से एक स्वर सुनाई पड़ा -


‘‘ओह ! शायद रावण हो तुम ! तभी पुष्पक तुम्हारे पास है। क्या कर रहे हो यहाँ ?’’
‘‘देख नहीं रहे पुष्पक में कुछ यान्त्रिक खराबी आ गई है, उसीको समझने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन तुम कौन होते हो हमसे यह प्रश्न करने वाले ? जाओ अपने रास्ते।’’
वह व्यक्ति हँस पड़ा -
‘‘कोई खराबी नहीं आई है पुष्पक में। यह भगवान शिव का क्षेत्र है - कैलाश। यहाँ किसी भी अजनबी का आना वर्जित है। पुष्पक को पीछे की दिशा में संचालित करो यह स्वतः सक्रिय हो जायेगा।’’
‘‘लंकेश्वर को निर्देशित करने वाला तू कौन होता है दुष्ट ? जा अपने रास्ते अन्यथा प्राणों से हाथ धो बैठेगा।’’ यह आवाज ध्ूाम्राक्ष की थी। रावण से अधिक सत्ता का मद उसके साथियों में आ गया था। कोई भी ऐसा-गैरा आकर सवाल करने लगे यह उन्हें बर्दाश्त नहीं था। उस पर भी रावण को पहचानने के बाद, उसकी लोकपाल कुबेर पर विजय से परिचित होने के बावजूद।
‘‘नहीं धूम्राक्ष ! उत्तेजित मत हों।’’ रावण को धूम्राक्ष का उस व्यक्ति पर बरसना अच्छा लगा था पर फिर भी उसने स्वयं को गंभीर और शिष्ट व्यक्ति साबित करने का प्रयास करते हुये कहा। फिर आगंतुक की ओर मुड़ा और बोला -
‘‘ठीक है यह किसी शिव का क्षेत्र है पर हम तुम्हारा क्या अहित कर रहे हैं ?’’
‘‘प्रश्न कुछ हित या अहित करने का है ही नहीं। आप किसी के घर में बिना उसकी सहमति के कैसे प्रवेश कर सकते हैं ? और फिर इस समय तो प्रभु और माता विहार कर रहे हैं। इस समय तो किसी को भी प्रवेश की अनुमति नहीं है।’’
‘‘हम तुम्हारे प्रभु के विहार क्षेत्र में कहाँ प्रवेश कर रहे हैं। हमारा यान खराब हो गया है अतः विवशतावश हम यहाँ खड़े हैं अन्यथा हम तो स्वयं ही आगे अपने मार्ग पर प्रस्थान कर गये होते।’’
‘‘कहा तो मैंने, तुम्हारे यान में कुछ नहीं हुआ है। यह यान भी प्रभु की इच्छा के बिना इस क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता। पीछे लौट जाओ यान सकुशल तुम्हें ले जायेगा। बस यह आगे नहीं बढ़ेगा।’’
‘‘मतलब इसमें भी तुम्हारा कोई कपट कार्य है ? बिना यान को स्पर्श किये तुम इसकी गति नियंत्रित कर सकते हो ?’’ रावण ने आश्चर्य से पूछा।
‘‘इसमें मेरा कोई कपट कृत्य नहीं है। प्रभु ने इस क्षेत्र में कुछ चुम्बकीय तरंगें प्रवाहित कर दी हैं जिन्हें कोई यान काट नहीं सकता।’’
‘‘ओह ! यह बात है।’’ रावण अब प्रहस्त की ओर घूमा - ‘‘मातुल क्या करें ? आप ही सम्मति दीजिये।’’
‘‘इसमें सम्मति की क्या आवश्यकता है ? जिसने भी लंकेश्वर के यान को रोका है वह दंड का भागी है। उसे दंड तो देना ही पड़ेगा, वह कोई भी हो।’’
‘‘होश में आओ ! ऐसा न हो जीवन से ही हाथ धोना पड़े।’’ आगन्तुक बोला।
‘‘एक साधारण से चर का इतना साहस जो साक्षात लंकेश्वर को धमका रहा है, ये ले ...’’ यह मारीच था जिसने इतना कहने के साथ ही आगन्तुक पर वार कर दिया था। आगन्तुक ने कुशलता से पैंतरा बदल कर वार को नाकाम कर दिया और मारीच का हाथ पकड़ लिया। मारीच सारी ताकत लगाकर भी हाथ नहीं छुड़ा सका। आगन्तुक ने उसका हाथ पकड़े-पकड़े ही दूसरे हाथ से आगे बढ़ते हुये महोदर को एक धक्का मारा तो वह दूर गिरा जाकर। फिर आगन्तुक बोला -
‘‘यह साधारण सा चर नंदी है। प्रभु शिव का अकिंचन सेवक। दुस्साहस से बाज आ जाओ तुम लोग।’’
उसने मारीच के हाथ को एक झटका दिया तो एक चटाक की आवाज हुई और मारीच हाथ पकड़ कर बैठ गया। वह चीखा -
‘‘सम्राट इसका इतना साहस हो गया कि आपके सामने इसने मुझ पर वार कर दिया। इस पर भी अगर आप चुप ही रहे तो आपकी ख्याति का क्या होगा ? सत्ता पुचकार से नहीं, दण्ड से ही सम्हाली जाती है अन्यथा लोग दुर्बल और भीरु समझने लगते हैं।’’
‘‘ठीक कहते हो मारीच !’’ कहने के साथ ही रावण ने नंदी पर छलांग लगा दी।
दोनों के पंजे एक दूसरे में उलझ गये। रावण को अहसास हुआ कि इतना आसान नहीं है नंदी से पार पाना। काफी देर दोनों आपस में उलझे रहे पर आखिर उसने नंदी को गिरा ही दिया। उसने मौका पाकर नंदी की गर्दन पर एक भरपूर वार किया, अगले ही क्षण नंदी के हाथ-पैर ढीले पर गये, उसकी चेतना लुप्त हो गयी थी।
‘‘हाथ-पैर बाँध कर डाल दो इसे। फिर आगे देखते हैं कौन है इसका प्रभु शिव। अब तो उसको भी रावण की सत्ता से परिचित कराना आवश्यक हो गया है।’’
नंदी को हाथ-पैर बाँध कर वहीं डालकर वे लोग आगे बढ़े।
थोड़ी ही दूर बढ़े होंगे कि कमर में बाघम्बर पहले, सिर पर रूखे जटाजूट बाँधे, शरीर पर राख मले एक विशालकाय व्यक्तित्व ने उनकी राह रोक ली। सात फुट से भी अधिक ही होगा उसका कद। श्वेत वर्ण पर धूसर वर्ण की राख अद्भुत सम्मोहक प्रभाव उत्पन्न कर रही थी। विशाल नेत्रों में भी जैसे चुम्बक सी शक्ति थी। एक पल को तो जैसे सब उन नेत्रों के जाल में उलझ कर रह गये। उस व्यक्ति के पीछे एक अनिंद्य सुन्दरी खड़ी थी। पुष्पाहारों से सुसज्जित। पर उसकी ओर देखने का समय नहीं था।
‘‘तो तुम लोगों ने नंदी की बात नहीं मानी। व्यवधान उत्पन्न करने आ ही गये।’’
‘‘लंकेश्वर का मार्ग रोकने वाले को मृत्यु ही प्राप्त होती है। तत्पर हो जा तू भी मृत्यु का वरण करने के लिये।’’ अब तक रावण पूरी तरह क्रोध में आ चुका था। सामने वाला व्यक्ति कितना भी मजबूत क्यों न हो वे सात अब भी थे, मारीच के घायल होने के बाद भी। उसे आसानी से वश में कर सकते थे।
‘‘अधिक अभिमान ठीक नहीं होता। लौट जाओ।’’ शिव अभी भी मुस्कुरा रहे थे।
‘‘यह उक्ति तो तुम्हारे ऊपर भी लागू होती है। तुम्हें भी तो अपनी शक्ति का अभिमान है तभी तो हमारा मार्ग रोक रहे हो।’’
‘‘क्या चाहते हो ?’’
‘‘युद्ध ! लंकापति रावण तुमसे युद्ध चाहता है।’’
‘‘मूर्खता मत करो।’’
‘‘तुम रावण के बल को कम आँक रहे हो ?’’
‘‘नहीं ! कुबेर को परास्त करने वाला दुर्बल नहीं हो सकता। किंतु मुझे अपने बल का भी ज्ञान है।’’
‘‘तो तुम्हें भी ज्ञात है कुबेर की पराजय ! आओ।’’
‘‘चलो ! तुम्हारा मन रख ही लेते हैं। वार करो। चाहो तो आठों मिल कर एक साथ भी वार कर सकते हो।’’
‘‘नहीं और कोई नहीं ! अकेला रावण ही युद्ध करेगा। अन्यथा तुम कहोगे कि लंकेश्वर ने मुझे अनीति से परास्त किया।’’
‘‘जैसी तुम्हारी इच्छा !’’ शिव अब भी हँस रहे थे। पूर्ववत दोनों पैर थोड़ा सा फैलाये हुये। दोनों पैरों पर समान भार डाले हुये। उनका त्रिशूल दूर एक शिला के साथ टिका था।
रावण ने अपनी कृपाण को हाथों में तौला। कुछ देर शिव की आँखों में घूर कर उन्हें सम्मोहित करने का प्रयास किया किंतु प्रयास विफल हो गया। उसे ऐसा लगा जैसे वह स्वयं सम्मोहित हो जायेगा।
‘‘अपना त्रिशूल उठा लो।’’ रावण बोला।
‘‘कोई आवश्यकता नहीं है।’’ शिव अब भी हँस रहे थे।
रावण ने भी अपनी कृपाण फेंक दी। वह दो-तीन बार पंजों पर हल्का सा उछला फिर थोड़ा सा पीछे हटा, फिर अचानक आगे बढ़ते हुये उसने उछल कर पूरी ताकत से शिव के सीने पर वार कर दिया।
पर यह क्या ? शिव जैसे बच्चे को खिला रहे हों इसी भाँति उन्होंने हँसते हुये रावण के पैर हवा में एक ही हाथ से लपक लिये और उसे अपने सिर के चारों ओर घुमाने लगे जैसे कोई बच्चा दूर फेंकने के लिये लंगड़ घुमा रहा हो।
‘‘बोलो तो तुम्हारे पुष्पक पर ही फेंक दूँ तुम्हें।’’ लेकिन उन्होंने ऐसा किया नहीं। उसे धीरे से वहीं जमीन पर डाल दिया और उसके सीने पर एक पैर टिका दिया।
रावण को ऐसा लगा जैसे उसके सीने पर पहाड़ रख दिया गया हो। वह पूरी ताकत से चिल्ला पड़ा। उसका दम घुटा जा रहा था।
बाकी सबको जैसे साँप सूँघ गया था। सब प्रस्तर की मूर्ति के समान अचल खड़े हुये थे। किसी में इतना बल भी हो सकता है, यह उनकी कल्पना से परे था। वे सातों अगर मिलकर भी शिव पर टूटते तो भी शायद उन्हें हिला नहीं पाते। उन्हें परास्त करना तो सपना देखने जैसा ही था।
‘‘अधिक हो गया क्या ?’’ शिव ने पैर का दबाव हल्का कर दिया। फिर धीरे से बढ़ाया। रावण फिर चीख उठा। सब किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े थे। सबसे पहले प्रहस्त को ही चेत हुआ। वही आगे बढ़ कर शिव के पैरों में झुकता हुआ बोला -
‘‘प्रभु क्षमा करें। हम आपको जानते नहीं थे। अनजाने में हमसे अपराध हुआ है। आप महान हैं। लंकेश्वर को क्षमादान देकर हम पर कृपा करें।’’
‘‘जाओ दे दी क्षमा। जहाँ जाना चाहते हो जा सकते हो। लेकिन हाँ नंदी के साथ क्या किया तुम लोगों ने ? उसके चेतना में रहते तो तुम लोग यहाँ तक आ ही नहीं सकते थे।’’
‘‘कुछ नहीं उसे बस अचेत कर बाँध कर वहीं छोड़ दिया था।’’
‘‘तो जाओ, पहले उसे बंधन मुक्त कर सम्मान से यहाँ लेकर आओ।’’
‘‘जैसी आज्ञा प्रभु की ! किंतु लंकेश्वर को भी क्षमा करें। उसे भी छोड़ दें।’’
‘‘कैसे छोड़ दूँ उसे ? उसने तो मुझसे युद्ध माँगा था सो मैंने दिया। मैंने तो उसकी ही इच्छा का मान रखा। क्षमा तो उसने माँगी ही नहीं वह कैसे दे सकता हूँ।’’
‘‘प्रभु लंकेश्वर भी क्षमा माँग रहे हैं। उन्हें क्षमा माँग सकने की अवस्था में तो आने दें। उन्हें श्वास ले सकने की अवस्था में तो आने दें।’’
‘‘ऐसा ?’’ शिव आश्चर्य सा प्रकट करते हुये हँसे। एक क्षण अपने पैर के नीचे अधमरे से पड़े रावण को निहारा जिसकी अब तक चीखें भी बन्द हो चुकी थीं, फिर धीरे से अपना पैर हटा लिया।
प्रहस्त नंदी को लेने चला गया। शुक, सारण दोनों ने बढ़ कर रावण को उठाया। उसकी पीठ सहलाई जिससे उसे धीरे-धीरे चैतन्य आया।
चैतन्य आते ही रावण शिव के पैरों में पड़ गया।
‘‘त्राहिमाम् ... त्राहिमाम् ! रावण को अपनी शरण में लें प्रभु ! रावण आपको पहचान नहीं पाया था। क्षुद नाली में जब बरसात का थोड़ा सा जल मिल जाता है तो वह उफनने लगती है। अपने को सागर सदृश समझने लगती है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ है। आपका उपकार है जो आपने मुझे मेरी क्षुद्रता का ज्ञान करा दिया। मुझे मेरा स्थान दिखा दिय। अब क्रोध त्याग कर मुझे अपनी शरण में स्थान प्रदान करने की कृपा करें।’’
‘‘उठो वत्स ! मुझे क्रोध नहीं है पर अशिष्ट बालक को शिष्टता का पाठ तो पढ़ाना ही पड़ता है। उसके साथ थोड़ा सा क्रोध का अभिनय तो करना ही पड़ता है। उठो !’’
‘‘नहीं प्रभु ! रावण का स्थान अब आपके चरणों में ही है।’’
‘‘मेरे चरणों में ही पड़े रहोगे तब तो मेरे लिये बंधन बन जाओगे और शिव पार्वती के अतिरिक्त दूसरा कोई बन्धन पसंद नहीं करता। उठो ..’’ कहते हुये शिव ने रावण को कंधे से पकड़ कर उठा लिया। उसे अपने सामने खड़ा किया फिर बोले - ‘‘ब्रह्मा के वचनों का मैं असम्मान नहीं कर सकता इसलिये तुम मेरे लिये अवध्य हो, किंतु बिना वध किये भी तुम्हें मृत तुल्य तो बना ही सकता हूँ। भविष्य में बिना संयत बुद्धि से विचार किये मदमत्त हो किसी से मत उलझना। यदि सम्मान चाहते हो तो दूसरों का सम्मान करना भी सीखो।’’
‘‘जैसी आज्ञा प्रभु की। आपकी यह सीख सदैव याद रखूँगा।’’
शिव ने उसे ध्यान से ऊपर से नीचे तक देखा, फिर पीछे घूमकर पार्वती से संबोधित हुये -
‘‘देखो प्रिये ! क्या इसके ये आँसू सच्चे हैं ? तुम्हें क्या प्रतीत होता है इसे सच में पश्चाताप है ? बच्चों के हृदय में माता ही सहजता से झाँक सकती है।’’
ओंठों पर मन्द स्मित लिये पार्वती आगे आयीं। रावण को सर से पैर तक निहारा। फिर बाकी सब पर भी निगाह डाली-
‘‘प्रभु ! लगते तो सच्चे ही हैं। क्षमा कर ही दीजिये।’’
‘‘जाओ आनन्द करो ! यशस्वी भव ! दीर्घायु भव ! तुम्हारे साहस से मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हारे स्थान पर कोई अन्य होता तो वह मुझसे टकराने का साहस कदापि नहीं करता। तुमने किया।’’
‘‘प्रभु ऐसे ही चला जाऊँ ? जब तक आप रावण को शरण में स्थान नहीं देंगे वह नहीं जायेगा।’’
‘‘दे तो दिया स्थान, और कैसे दूँ ?’’ शिव के अधरों पर मधुर मुस्कान नृत्य कर रही थी।
‘‘प्रभु अपनी कोई ऐसी निशानी दीजिये जिससे मुझे सदैव प्रतीत होता रहे कि आपका वरद हस्त मेरे शीश पर है।’’
इस समय तक प्रहस्त नंदी को लेकर आ गया था। दोनों एक ओर हाथ जोड़े खड़े थे। शिव नंदी से बोले -
‘‘नंदी जाओ गुफा से मेरा चंद्रहास खड्ग ले आओ।’’
नंदी चला गया तो शिव पार्वती की ओर घूमे -
‘‘देवी अब तो ये लोग शरणागत हैं, कुछ प्रसाद तो प्रदान करो इन्हें। भूखे होंगे, थक भी गये होंगे।’’
पार्वती ने ताली बजायी तो पता नहीं कहाँ से एक अजीब सी सूरत वाला गण प्रकट हुआ। खूब बड़ी-बड़ी आँखें, असामान्य रूप से विकसित नासिका, बिलकुल श्वेत वर्ण, सिर पर उलझी जटाओं के दो जूड़े से बाँध रखे थे जो दो सींगों से लग रहे थे। शिव से कुछ ही कम लम्बा, लेकिन इतना पतला कि लगता था जैसे सरकंडों से बना हो। वस्त्र के नाम पर केवल एक लँगोटी। उसने भी सारे शरीर पर गाढ़ी राख मली हुई थी। आते ही उसने प्रणाम किया तो पार्वती ने कहा -
‘‘वीरभद्र ! अतिथियों के लिये कुछ प्रसाद की व्यवस्था करो तो जरा।’’
‘‘माता ! ढेर सारे फल उपलब्ध हैं कैलाश पर, कौन-कौन से ले आऊँ।’’
‘‘अरे कोई भी ले आओ, जो तुम्हें अधिक रुचिकर हों !’’

क्रमशः

मौलिक एवं अप्रकाशित

- सुलभ अग्निहोत्री

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