पिता जी की डायरी से....
 
 हाय भगवन क्या दिखाया ,
 शांति मन में विक्रांति लाकर .
 सरज का नव पुष्प कोमल ,  
 अग्नि ज्वाला में फसाकर,
 वेड ही दिवस महिना ,
 श्वेत ही वर्ण था निशा का,
 शास्त्र ही दिन शेष था.
 सूर्य था पश्चिम दिशा का.
 उत्साह का उस दिन था पहरा ,
 नयन सबही के खिले थे.
 एक वर वधु के व्याह में ,
 दर्शक बने मन मुग्ध होंगे ,
 कला और विज्ञानं,
  सब के चित्त की चोरी करेंगे 
 आनंद की सरिता बहेगी .
 भाव मेरी भी तरंगित ,
 आश में ही पल चुकी थी .
 नयन की अर्जी से पहले, 
 मन की मर्जी मिल चुकी थी.
 पाँव मेरे चल पड़े थे ,
 छोड़ मन को एक किनारे ,
 अनजान ही कुछ कर रहे कर,
 प्राप्त नयनों के सहारे .
 गुथा गए कर जा कहीं पर,
 दिल ये दौड़ा था छुड़ाने .
 हर गयी उसकी भी ताकत ,
 कर न कुछ पाया न जाने .
 हाय खंडित हो चला सब ,
 मौत के द्वारे खड़ा था,
 हाथ में विद्युत् पड़ी थी ,
 आह भर वेवस पड़ा था. 
 एक भी छन भी न बीता ,
  छीन  सब कुछ ले लिया था.
 जिंदगी के प्यार में ,
 मुझको महा गम दे दिया था.
 देख कर मेरी दशा ,
 विधि ने दया मुझ पर दिखाया .
 हाथ कम्पित से फिसल कर ,
 ज्वाल खुद ही निम्न आया.
 दोष मैं किसका बताऊँ ,
 रंज मालिक हो गए थे .
 बात हम सब कुछ समझ कर ,
 उस समय में सो गए थे.
 -----------------------------अवधेश कुमार तिवारी 
Comment
जीवन के अनुभव अपने आप में एक काव्य अनुभूति होते हैं | इनकी मधुर अभिव्यक्ति है इस रचना में | कोटिश धन्यवाद इस रचना को ओ.बी.ओ. के ज़रिये हम तक लाने के लिये आर.एन. तिवारी जी
इतना दर्द भावनाओं में
सर्व प्रथम तो आदरणीय अवधेश कुमार तिवारी जी को कोटिश: प्रणाम , और आप को बहुत बहुत धन्यवाद जो एक मोती की क्गुब्सुरत चमक से हम सब को रूबरू कराया | बेहद खुबसूरत काव्य कृति |
एक बार पुनः धन्यवाद RN तिवारी जी |
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