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ग़ज़ल: यही सवाल मेरे ज़ेह्न में उभरता है

1212,1122, 1212, 22/112

यही सवाल मेरे ज़ेह्न में उभरता है
वो ज़िंदगी के लिए कैसे रोज़ मरता है//१

चली है सर्द हवा पूस के महीने में
किसान खेत में रातों को आह भरता है//२

वो धीरे धीरे मेरे दिल मे यूँ उतर आया
कि जैसे चाँद किसी झील में उतरता है//३

अक़ीदा जोड़ के देखो किसी की उल्फ़त से
जहान सारा नई शक्ल में निखरता है//४

नया ज़माना है फ़ैशन का दौर है यारों
चमन में भौंर भी तितली सा अब सँवरता है//५

सवाल आइना जब भी उछालता मुझ पर
ज़मीर रेत की दीवार सा बिखरता है/६

-- क़मर जौनपुरी

मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by क़मर जौनपुरी on January 12, 2019 at 7:23am

बहुत बहुत शुकिया मोहतरम। अक़ीदा लिखना चाहा था यक़ीदा हो गया।

Comment by Samar kabeer on January 10, 2019 at 11:34am

जनाब क़मर जौनपुरी साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'यकीदा जोड़ के देखो किसी की उल्फ़त से'

इस मिसरे में 'यकीदा' का अर्थ क्या है?

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