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सुझाव / इस्लाह आमंत्रित 
.

जब क़लम उठाता हूँ यह सवाल उठता है
क्यूँ ग़ज़ल कही जाए कब ग़ज़ल कही जाए?
.
क्या अगर कोई तितली फूल पर जो मंडराए
टूट कर कोई पत्ता शाख़ से बिछड़ जाए

तोड़ कर सभी बन्धन पार कर हदों को जब
इक नदी उफ़न जाए, दौडकर समुन्दर की
बाँहों में समा जाए तब ग़ज़ल कही जाए?
.
इक  पुराने अल्बम से झाँक कर कोई चेहरा
तह के रक्खी यादों के ढेर को झंझोड़े और
इक किताब में बरसों से सहेजी पंखुड़ियाँ
यकबयक बिखर जाएं और दिल मचल जाए
क्या तुम्हे ये लगता है तब ग़ज़ल कही जाए?

फिर ख़याल आता है आज आख़िरी दिन है
कुछ उधार चुकता कर कुछ उधार लेना है
फीस भी तो भरनी है नौकरी पे जाना है.
नौकरी ही करनी है नौकरी ही की जाए

क्यूँ ग़ज़ल कही जाए कब ग़ज़ल कही जाए?

.
और फिर अचानक ही रात के अँधेरे को
चीर कर चमकता इक जुगनू टिमटिमाता है
तब ख़याल आता है मैं तो कोरा कागज़ हूँ
लेखनी उसी की है हर्फ़ भी उसी के हैं
और ये मज़ामीं भी वो ही मुझ को देता है.
क्यूँ न फिर उसी से कुछ रौशनी भी ली जाए
उस पे ही कही जाए जब ग़ज़ल कही जाए.

.
सोचकर उसी पर कुछ मैं जो डायरी खोलूँ
कोई मेरे अंदर से मुझ को रोक देता है
और मुझ से कहता है किस पे लिख रहे हो तुम?
.
क्या तुम्हे ज़माने के दर्द का पता है कुछ
जानते हो इक ज़ालिम रोज़ ज़ुल्म करता है
जो तुम्हे खिलाता है वो ही भूखा मरता है.
एक बेवा पेन्शन की लाइनों में लगती है
दफ्तरों की मेज़ों पर अपना सर पटकती है.
शख्स वो जो ज़िन्दा है कितने फॉर्म भरता है
वो मरा नहीं अब तक कैसे सिद्ध करता है?
क्या तुम्हे इन्ही में से वो नज़र नहीं आता
जो तुम्हारे अन्दर है तुम को टोक देता है
हुस्न पर ग़ज़ल कहने से जो रोक देता है?
.
तितलियाँ नदी शाखें और इश्क़ के क़िस्से
ये वो दुनिया है जिस में जीना चाहते हो तुम.
जिस में जी रहे हो तुम वो तुम्हारी दुनिया है
काश तुम जो कह पाते इस पे भी ग़ज़ल कहते.
.
पढ़ के अपनी दुनिया का हाल तुम जो घबराओ
खुल के बात कहने से मन ही मन में शरमाओ   
जब तुम्हारे दिल में भी इक ख़लिश सी रह जाए
आह ठण्डी सी कोई चीख में बदल जाए  
और ग़ैरों की ख़ातिर आँख जब ये भर आए
तब ग़ज़ल कही जाए तब ग़ज़ल कही जाए.  

.  
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment by Samar kabeer on March 16, 2018 at 6:16pm

जनाब निलेश 'नूर' साहिब आदाब,बहुत उम्दा जज़्बाती नज़्म कही आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

'यक़ ब यक बिखर जाएँ,तब ग़ज़ल कही जाए?

मर्कज़ी मिसरा एक वचन में है, इस मिसरे में "जाएँ" बहुवचन है ।

'हुस्न पर ग़ज़ल कहने से तुमको  रोक देता है"

ये मिसरा लय में नगीं है ।

'पढ़ के अपने ही दुनिया का हाल तुम जो घबराओ'

ये मिसरा भी लय में नहीं है,शिल्प भी कमज़ोर, यूँ:-

'पढ़ के अपनी दुनिया का हाल तुम जो घबराओ'

ऐसा लगता है,आपने ये त्रुटियाँ जान बूझ कर रखी हैं?

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