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“पापा, मुझे ज्वाइंट और न्युक्लियर फ़ैमिली के मेरिट्स-डिमेरिट्स के बारे में पढ़ना है.”  राजू ने अपने पापा से कहा.

फिर, चहकते हुये पूछा, "पापा, ज्वाइंट फ़ैमिली में बडा मजा आता होगा न.. सब एक साथ रहते होंगे. खेलने को बाहर भी नहीं जाना पड़ता होगा”, 
“हाँ, बेटा मजा तो बहुत आता था. तेरे दादा-दादी, चाचा-चाची, हमसभी एक साथ रहते थे.. हरतरह से सुख-दुःख में एक साथ.. पर तेरे जन्म के बाद से हम भी न्युक्लियर फ़ैमिली हो गये.”
तभी किचेन से राजू की माँ का चीखता हुआ स्वर गूँजा, “राजूऽऽ.. " 
वो एकदम से पापा और राजू के बीच आ गयीं, "जब देखो टाइम पास करते रहते हो. सोशल-स्टडी के बाद मैथ्स भी देखना है..”  
फिर लगीं धाराप्रवाह ज्वाइंट फ़ैमिली के डिमेरिट्स बताने. राजू को उनके कई प्वाइंट आउट आफ़ सिलेबस लग रहे थे. 
उधर पापा अपने स्मार्टफ़ोन पर पुराने एल्बम के स्कैन्ड फैमिली फोटो को एक-एक कर उँगलियों से चलाते हुए देखते जा रहे थे, मानों ’आउट आफ़ सिलेबस’ लगते डिमेरिट्स को एक बार फिर से समझने की कोशिश कर रहे हों.
==========
शुभ्रांशु 
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by neha agarwal on May 15, 2015 at 4:09pm
बहुत खूब
Comment by aman kumar on May 15, 2015 at 11:40am

लाभ किसमे है , ये तो सब जानते है पर लाभ या लोभ इसका भी फैसला जरूरी है । मन की खुशी कोई दौलत नही दे सकती , एकाकीपन कचोटता ही है ,मन होकर दिल तक ज्ञी है आपकी कथा सफल है ! आभार 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 15, 2015 at 11:04am

बहुत सुंदर लघुकथा, आदरणीय शुभ्रांशु जी. एक सजीव सा चित्रण, शायद मैथ्स ही सोशल-स्टडी के आड़े आने से जॉइंट परिवारों का , छोटे-छोटे न्यूक्लियर में परिवर्तित होने का प्रमुख कारण है. बहुत-बहुत बधाई इस बेहतर लघुकथा पर.

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