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मैंने ऐसा मंज़र देखा

मैंने ऐसा मंज़र देखा।
बहती आँख समंदर देखा।।

मुझको अपना कहता था जो।
उसके हाथों खंजर देखा।।

मुखड़ा देखा जबसे उनका।
तबसे चाँद न अम्बर देखा।।

शायद कुछ तो दिख ही जाये।
मैंने खुद के अंदर देखा।

दूर दूर तक हरियाली थी।
धरती अब वो बंज़र देखा।।
**********************
राम शिरोमणि पाठक
मौलिक।अप्रकाशित

Views: 775

Comment

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Comment by ram shiromani pathak on December 27, 2014 at 9:29am
वंदना जी बहुत बहुत आभार आपका।।सादर
Comment by ram shiromani pathak on December 27, 2014 at 9:28am
सुझाव व् उत्साह वतधन हेतु बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय वीनस भाई।।सादर
Comment by vandana on December 27, 2014 at 6:18am

बहुत बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय राम शिरोमणि जी 

Comment by वीनस केसरी on December 27, 2014 at 1:06am

शायद कुछ तो दिख ही जाये।
मैंने खुद के अंदर देखा।

अच्छा शेर हुआ है

धरती शब्द का प्रयोग स्त्रीलिंग अनुसार होता है, मिथिलेश जी का सुझाव उचित है

Comment by ram shiromani pathak on December 27, 2014 at 12:13am
भाई अजय जी बहुत बहुत आभार।।सादर
Comment by ajay sharma on December 26, 2014 at 10:34pm

bahut hi acche aashaar hue hai .....sambhav aur sarthak sudhar to mithilesh ji kar hi diya ....

 

Comment by ram shiromani pathak on December 26, 2014 at 8:43pm
अनुराग जी बहुत बहुत आभार।
Comment by ram shiromani pathak on December 26, 2014 at 8:43pm
भाई मिथिलेश जी आपका अमूल्य सुझाव व् अनुमोदन सदैव प्रोत्साहित करता है।।सादर
Comment by ram shiromani pathak on December 26, 2014 at 8:41pm
सोमेश भाई बहुत आभार।।सादर
Comment by ram shiromani pathak on December 26, 2014 at 8:40pm
हरी प्रकाश जी बहुत आभार

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