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हे प्रभु, सुन !
कर दें अँधेरा
चारों तरफ.. .  
उजाले काटते हैं / छलते है !
लगता है अब डर
उजालें से
दिखती हैं जब
अपनी ही परछाई -
छोटी से बड़ी
बड़ी से विशालकाय होती हुई.
भयभीत हो जाती हूँ !
मेरी ही परछाई मुझे डंस न ले,
ख़त्म कर दे मेरा अस्तित्व !
जब होगा अँधेरा चारों ओर
नहीं दिखेगा
आदमी को आदमी !
यहाँ तक कि हाथ को हाथ भी.
फिर तो मन की आँखें
स्वतः खुल जाएँगी !
देख सकेंगे फिर सभी...
/ और मैं भी /
दिल की सच्चाई !

............

सविता मिश्रा

"मौलिक व अप्रकाशित"

Views: 800

Comment

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Comment by savitamishra on August 26, 2014 at 12:10pm

आदरणीय सौरभ भैया शायद ख़ास और आम में हमसे ही चुक हुई ...यूँ ही अपनी ख़ास उपस्थिति दर्ज करा मार्ग प्रसस्त करतें रहिये ......दुबारा पढ़ हम समझने की कोशिश करते है ...


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 26, 2014 at 12:40am

आप पंक्तियों को ध्यान से पढ़ें और प्रस्तुत हुए संशोधनों की सार्थकता को हृदयंगम करें.

सब स्पष्ट होता जायेगा. 

Comment by savitamishra on August 25, 2014 at 11:53pm

ख़त्म कर दे मेरा अस्तित्व ! आदरणीय सौरभ भैया अभी अपने ब्लॉग पर यही रचना डाले थे तो अभी पढ़े की आपने यहाँ 'मेरा' लिखा जबकि शायद 'इसका अस्तित्व' होना चाहिए या हम गलत है ..कृपया भ्रम दूर करने का एक बार पुनः कष्ट करें

Comment by savitamishra on August 23, 2014 at 9:45pm

aapki tippadi ke liy bahut bahut abhar thedil se meena sis apka ...

Comment by Meena Pathak on August 23, 2014 at 1:58pm

क्या बात है ..बहुत सुन्दर बात कही आपने अपनी रचना के मध्याम से ..बहुत बहुत बधाई 

Comment by savitamishra on August 23, 2014 at 10:28am

आदरणीय सौरभ भैया इसे कहते है शिल्पगत हुनरबाज का कमाल

तराश कर आपने कंकड़ को कीमती पत्थर बना दिया है. जड़ लेते हैं हम अब इसे पोस्ट के जरिये अपने पेज पर  .........बहुत बहुत आभार  भैया आपका सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 22, 2014 at 10:00pm

हे प्रभु, सुन !
कर दें अँधेरा
चारों तरफ.. .  
उजाले काटते हैं / छलते है !
लगता है अब डर
उजालें से
दिखती हैं जब
अपनी ही परछाई -
छोटी से बड़ी
बड़ी से विशालकाय होती हुई.
भयभीत हो जाती हूँ !
मेरी ही परछाई मुझे डंस न ले,
ख़त्म कर दे मेरा अस्तित्व !
जब होगा अँधेरा चारों ओर
नहीं दिखेगा
आदमी को आदमी !
यहाँ तक कि हाथ को हाथ भी.
फिर तो मन की आँखें
स्वतः खुल जाएँगी !
देख सकेंगे फिर सभी...
/ और मैं भी /
दिल की सच्चाई !

---

Comment by savitamishra on August 22, 2014 at 9:24pm

हे प्रभु, सुन !
कर दें अँधेरा..
चारों तरफ....  .
उजाले ...
काटते हैं
,छलते है !
लगता है
अब..
उजालें से डर!

दिखती हैं जब..
अपनी ही परछाई!
भयभीत हो जाती हूँ !
देख छोटी से बड़ी..
बड़ी से विशालकाय ..
होती  !
मेरी ही परछाई मुझे !
डंसने ना लगे..
ख़त्म कर दें ..
इसका अस्तित्व !
जब होगा ....
अँधेरा
चहुँओर !
नहीं दिखेगा...

आदमी को आदमी !
यहाँ तक कि..
हाथ को
हाथ ...
नहीं सूझेगा तो !

मन की आँखे..
स्वतः खुल जाएँगी !
मन की आँखों से !
देख सकेंगे ...
दिल की सच्चाई

फिर...
ख़त्म हो जाएँगी..

सारी की सारी बुराइयां !
हे प्रभु सुन !
कर दें
अँधेरा ...
चारों तरफ..
अँधेरे में रह ही ...
शायद उजाले की ..
असली कीमत ..
समझ आएगी|....सविता मिश्रा

क्या थोड़ी सही हुई अब इसकी प्रस्तुति ..कुछ शब्द हटा भी दिए

Comment by savitamishra on August 22, 2014 at 9:04pm

सादर नमस्ते आदरणीय लक्ष्मण चाचाजी ....सादर आभार आपका ..शुक्रगुजार है हम आपके, आपकी बधाई को पाकर प्रसन्नता हुई

Comment by savitamishra on August 22, 2014 at 9:02pm

आदरणीय विजय चाचाजी सादर नमस्ते ....दिल की गहराइयों से आपका आभार व्यक्त करते हैं हम ..बहुत बहुत धन्यवाद अपनी उपस्तिथि दर्ज करने के लिय :)

कृपया ध्यान दे...

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