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बह्र : रमल मुसम्मन महजूफ

वज्न : २१२२, २१२२, २१२२, २१२

मध्य अपने आग जो जलती नहीं संदेह की,
टूट कर दो भाग में बँटती नहीं इक जिंदगी.

हम गलतफहमी मिटाने की न कोशिश कर सके,
कुछ समय का दोष था कुछ आपसी नाराजगी,

आज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
कल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,

यूँ धराशायी नहीं ये स्वप्न होते टूटकर,
आखिरी क्षण तक नहीं बहती ये आँखों की नदी,

रात भर करवट बदलना याद करना रात भर,
एक अरसे से यही करवा रही है बेबसी.

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by अरुन 'अनन्त' on April 21, 2014 at 11:21am

हार्दिक आभार आदरणीया वंदना जी

Comment by अरुन 'अनन्त' on April 21, 2014 at 11:21am

हार्दिक आभार आदरणीय जीतेंद्र भाई जी

Comment by अरुन 'अनन्त' on April 21, 2014 at 11:21am

बहुत बहुत शुक्रिया नीरज भाई

Comment by अरुन 'अनन्त' on April 21, 2014 at 11:20am

आदरणीय गिरिराज जी सराहना हेतु बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by अरुन 'अनन्त' on April 21, 2014 at 11:20am

आदरणीय उमेश जी सराहना हेतु बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by अरुन 'अनन्त' on April 21, 2014 at 11:20am

हृदयतल से हार्दिक आभार आदरणीय बृजेश भाई जी ग़ज़ल आपको पसंद आई सफल हुई स्नेह यूँ ही बनाये रखिये

Comment by अरुन 'अनन्त' on April 21, 2014 at 11:19am

हार्दिक आभार आदरणीय सविता जी

Comment by अरुन 'अनन्त' on April 21, 2014 at 11:19am

हार्दिक आभार आदरणीया कुंती जी आशीष एवं स्नेह बनाये रखिये

Comment by अरुन 'अनन्त' on April 21, 2014 at 11:18am

हार्दिक आभार आदरणीया गीतिका जी

Comment by अरुन 'अनन्त' on April 21, 2014 at 11:17am

हार्दिक आभार आदरणीया राजेश माँ जी आपकी सराहना पाकर मन प्रसन्न हो था निःसंदेह आपका परामर्श उचित है अभी सुधार कर लेता हूँ आशीष एवं स्नेह यूँ ही बनाये रखिये

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