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स्वप्न और सत्य /नीरज नीर

कभी कभी खो जाता हूँ ,

भ्रम में इतना कि 

एहसास ही नहीं रहता कि 

तुम एक परछाई हो..

पाता हूँ तुम्हें खुद से करीब 

हाथ बढ़ा कर छूना चाहता हूँ.

हाथ आती है महज शुन्यता .

स्वप्न भंग होता है ..

पर सत्य साबित होता है

क्षणभंगुर.

स्वप्न पुनः तारी होने लगता है.

पुनः आ खड़ी होती हो

नजरों के सामने .. 

नीरज कुमार नीर 

मौलिक एवं प्रकाशित 

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Comment by vijay nikore on April 26, 2014 at 6:37am

सुन्दर भाव, सुन्दर अभिव्यक्ति। बधाई।

Comment by Neeraj Neer on April 24, 2014 at 9:36am

आदरणीया डॉ प्राची सिंह साहिबा आपको कविता पसंद आयी , आपका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ ... 

Comment by Neeraj Neer on April 24, 2014 at 9:35am

आपका हार्दिक आभार आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 23, 2014 at 11:12pm

स्वप्नों की क्षणभंगुरता, उनको पकड़ लेने की अधूरी ख्वाहिश, पर काफी मंथन करती सुन्दर आत्माभिव्यक्ति

हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति पर  

Comment by रमेश कुमार चौहान on April 19, 2014 at 10:57am

बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति बधाई आदरणीय

Comment by Neeraj Neer on April 18, 2014 at 3:36pm

आदरणीय बृजेश जी हार्दिक आभार आपका .. बहुत दिनों पश्चात मेरे किसी पोस्ट पर आये .. आपकी बात नोट कर ली है , सुधार कर लूँगा ..आपका बहुत धन्यवाद . 

Comment by बृजेश नीरज on April 18, 2014 at 9:04am

अच्छी कविता है! बहुत बधाई!

//पर सत्य साबित होता है// इस पंक्ति में 'पर' शब्द की बहुत आवश्यकता नहीं थी.

'कि' के इस्तेमाल में कोई दिक्कत नहीं. कविता में गद्यात्मकता वाक्य-प्रयोग और भाव-शून्यता के कारण आती है.

Comment by Neeraj Neer on April 17, 2014 at 8:26pm

आ. लडिवाला साहब आपका हार्दिक आभार. 

Comment by Neeraj Neer on April 17, 2014 at 8:25pm

आ. जीतेन्द्र भाई .. हार्दिक आभार.

Comment by Neeraj Neer on April 17, 2014 at 8:24pm

आपका हार्दिक आभार आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब.

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