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सामने

द्वार के
तुम रंगोली भरो   
मैं उजाले भरूँ
दीप ओड़े हुए.. .

क्या हुआ
शाम से
आज बिजली नहीं
दोपहर से लगे टैप बिसुखा इधर
सूख बरतन रहे हैं
न मांजे हुए
जान खाती दिवाली अलग से,
मगर --
पर्व तो पर्व है
आज कुछ हो अलग
आँज लें नैन
सपने सिकोड़े हुए... .

क्या हुआ
हम दुकानों के काबिल नहीं
भींच कर मुट्ठियाँ
क्या मिलेगा मगर !
मैं कहाँ कह रहा--
हम बहकने लगें ?
पर,
कभी तो जियें
ज़िन्दग़ी है अगर.. !
नेह रौशन करे
’मावसी साँझ को,
हम भरोसों भरें
भाव जोड़े हुए.. .
************************
--सौरभ

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Vajpeyee on October 28, 2013 at 6:14pm

वाह वाह वाह हार्दिक बधाई बन्धु श्रेष्ठ वाह 

Comment by Saarthi Baidyanath on October 28, 2013 at 5:25pm

सामने

द्वार के 
तुम रंगोली भरो   
मैं उजाले भरूँ 
दीप ओड़े हुए.. ...

पढ़कर दिल गद गद हो गया ! पूरी रचना सुन्दर बन पड़ी है ..पठनीय और वन्दनीय भी ! नमन स्वीकारें आदरणीय...बहुत बहुत बधाई  :)


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 28, 2013 at 5:06pm

आदरणीय सौरभ जी 

शब्द दर शब्द इस नवगीत की ऊर्जस्वी स्पंदित प्रतिध्वनि अब तक गूँज रही है..

बहुत सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय 

मुख्य पंक्तियाँ ही अपने साथ बाँध लेती हैं...

और बन्दों में जिस तरह से दैनिक जीवन के घरेलू झुंझुलाते पक्षों को शामिल किया गया है.. और उससे परे देखते हुए झट स्थाई खुशी पाने का मार्ग दिया गया है... यह तत्व ही नवगीत का प्राण है.

क्या हुआ
हम दुकानों के काबिल नहीं
भींच कर मुट्ठियाँ
क्या मिलेगा मगर !
मैं कहाँ कह रहा--
हम बहकने लगें ?
पर,
कभी तो जियें
ज़िन्दग़ी है अगर.. !........................वाह !
नेह रौशन करे
’मावसी साँझ को, 
हम भरोसों भरें
भाव जोड़े हुए.. .

...इस बंद को तो हर पाठक, हर श्रोता अपने अपने संवेदन स्तर पर निश्चय ही जी ही जाएगा... 

इस सुन्दर प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई

सादर!

Comment by राजेश 'मृदु' on October 28, 2013 at 3:11pm

पर,
कभी तो जियें
ज़िन्दग़ी है अगर.. !
नेह रौशन करे

आदरणीय, आपकी कलम से एक और सुंदर प्रस्‍तुति ताकि हम जिये, जीते रहें, बहुत ही सुंदर, सादर ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 28, 2013 at 9:02am

आदरणीया वन्दनाजी, आपको प्रयास रुचिकर लगा मेरा रचना कर्म सार्थक हुआ.

टैप के बिसुखा जाने का सही अर्थ लगाया है आपने. टैप यानि नल से पानी की कोई उम्मीद नहीं की झल्लाहट उभरी है इस पंक्ति में.

सादर धन्यवाद.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 28, 2013 at 8:59am

भाई अतेन्द्र जी, हृदय से धन्यवाद.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 28, 2013 at 8:58am

आदरणीय सत्यनारायण जी,  रचना प्रभावकारी लगी इस हेतु मैं हार्दिक रूप से धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ. 

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 28, 2013 at 8:56am

भाई विशाल जी, आपको रचना के भाव प्रभावकारी लगे यह मेरे लिए भी आनन्द की बात है.

हार्दिक धन्यवाद भाईजी.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 28, 2013 at 8:55am

आदरणीय लक्ष्मण प्रसादजी, यह सही है कि आज की स्थितियाँ विकट हैं लेकिन जीना तो है न !

आपसे रचना के भावों को अनुमोदन मिला यह मेरे रचना प्रयास को मिला अनुमोदन है.

सादर धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 28, 2013 at 8:53am

भाई रामशिरोमणि जी, आपको मेरा प्रयास तार्किक लगा यह इस प्रस्तुति को मिला पठकीय अनुमोदन है.

बहुत-बहुत धन्यवाद.

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