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5+7+5+7……..+5+7+7 वर्ण

 

जीवन कैसा

एक चिटका शीशा

देह मिली है

बस पाप भरी है

भ्रम की छाया

यह मोह व माया

अहं का फंदा

मन दंभ से गन्दा

शब्द हैं झूठे

सब अर्थ हैं छूटे

तृप्ति कहीं न

सुख-चैन मिले न

फाँस चुभी है

एक पीर बसी है 

प्यास बढ़ी जो

अब आस छुटी जो

किसे पुकारें

अब कौन उबारे

एक सहारा

माँ यह तेरा द्वारा

हे जगदम्बे!

शरणागत तेरे

आरती गाऊँ

रज माथ लगाऊँ

आन उबारो

यह जीवन तारो

माँ जगदम्बे!

सुन! हे माता अम्बे!  

अब आ जगदम्बे!

   -  बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

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Comment by बृजेश नीरज on October 14, 2013 at 1:52pm

आदरणीय अरुण भाई आपका हार्दिक आभार! आपको रचना पसंद आई, मेरा प्रयास सफल हुआ!

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 14, 2013 at 12:53pm

आदरणीय बृजेश भाई जी वाह माँ को समर्पित अत्यंत लाजवाब चोका, भाई जी इस विधा का न तो अधिक ज्ञान है और न कभी प्रयास किया कुछ कहने का किन्तु आपकी रचना इस विधा पर पढ़कर मजा आया. माँ जगदम्बे को गुहार करती सुन्दर रचना हेतु बधाई स्वीकारें.

Comment by बृजेश नीरज on October 14, 2013 at 8:23am

आदरणीया सरिता जी आपका हार्दिक आभार! आपको रचना पसंद आई, मेरा प्रयास सफल हुआ!

Comment by Sarita Bhatia on October 14, 2013 at 8:10am

वाह वाह ब्रिजेश जी चोका में जगदम्बे को विनती बहुत भाई और चोका समझ भी आ गया ,शुक्रिया एवं बधाई इस प्रयास हेतु 

Comment by बृजेश नीरज on October 14, 2013 at 7:47am

आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 14, 2013 at 7:31am

आदरणीय बृजेश भाई, सुन्दर भावों और विचारों से सजी आपकी रचना ,  माँ जगदम्बे की प्रार्थना अच्छी लगी !!!! आपको हार्दिक बधाई !!!

Comment by वेदिका on October 14, 2013 at 6:36am

यह केवल एक अनुमान था आदरणीय! कोई जानकारी नहीं| यदि विधा पर और प्रकाश डाला जाए तो आभार होगा| 

Comment by बृजेश नीरज on October 14, 2013 at 6:29am

आदरणीया गीतिका जी मेरे पहले प्रयास को आपका आशीष मिला, यही मेरे प्रयास की सार्थकता है! वैसे यह मेरा पहला प्रयास है, ये आपने कैसे जाना?

सादर!

Comment by बृजेश नीरज on October 14, 2013 at 6:27am

आदरणीय जीतेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on October 14, 2013 at 6:25am

 आदरणीया कल्पना दीदी, आपका हार्दिक आभार!

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