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पत्थरों के शहर में शीशे का घर मेरा भी है

पत्थरों के शहर में शीशे का घर मेरा भी है।

खौफ़ में साये में जीने का हुनर मेरा भी है॥

क़त्ल, दहशत, बम धमाके, हैं दरिंदे हर तरफ,

वहशतों के दौर में मुश्किल सफ़र मेरा भी है॥

देखना है कब तलक लेगा मेरा वो इम्तहान,

प्यार की बाज़ी में सब कुछ दांव पर मेरा भी है॥

मुड़ के अब तो देखने की तुमको ही फुर्सत नहीं,

कारवां के साथ तेरे एक सर मेरा भी है॥

उम्रभर रोती हैं आँखें बच के रहिए इश्क़ से,

ये तजुर्बा था किसी का अब मगर मेरा भी है॥

हर तरफ सहरा है रस्ते गुम हैं मंज़िल लापता,

और उसपे बेख़बर अब राहबर मेरा भी है॥

हो गया है क़त्ल उसका चुप रही इंसानियत,

जब परिंदे ने कहा के ये शज़र मेरा भी है॥

तुझको दुनिया चाँद से तशवीह देती है मगर,

इस हंसीं रुख़सार पर कुछ तो असर मेरा भी है॥

इश्क़ के मारों में “सूरज” तू अकेला ही नहीं,

हुस्न के बाज़ार में खूने-जिगर मेरा भी है॥

डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by Dr.Prachi Singh on March 12, 2013 at 10:45am

बहुत सुन्दर ग़ज़ल आदरणीय डॉ. सूरज बाली जी,

हर शेर बहुत खूबसूरत और दिलके करीब लगा .

बहुत बहुत बधाई..सादर.

Comment by DINESH PAREEK on March 12, 2013 at 9:14am

बहुत उम्दा प्रस्तुति आभार 

आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के  इंतजार में  

Comment by सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' on March 12, 2013 at 8:25am
बहुत अच्छी गज़ल, शुक्रिया।
Comment by बृजेश नीरज on March 12, 2013 at 5:48am

वाह क्या बात! बहुत बेहतरीन! 

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