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सोना पड़ा है वहां,अच्छी खुशखबरी है 
थकते चलते जाना कैसी मज़बूरी है ।
-  -  -  -  -  -  -  -  -  -  -  -  -  -  -
अगर हाथ न आये फल लोमड़ी के,
फल खट्टे है कहना ये मज़बूरी है ।
-   -  -  -  -  -  -  -  -  -  -  -  -  - -
हैसियत नहीं कान्वेंट में पढ़ाने की,    
देखादेखी दाखिला दिलाना मज़बूरी है। 
-  -  -  -  -  -  -  -  -  -  -  -  -  - --
नहीं उठा सकता मै गाडी का खर्च, 
दहेज़ में बिटियाँ को देना मज़बूरी है ।
-  -  - - -  -  -  -  -  -  -  -  -  - -  -
घर की दहलीज पार कभी गया न बाहर,
अस्थियाँ लेकर हरिद्वार जाना मजबूरी है ।
-  - -  -  -  -  -  -  -  -  -  -  -  -  -  -
भूत के भय से थर थर कांपते होटों से, 
संकट मोचक को याद करना मज़बूरी है ।
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जाते प्राण मोह माया, प्यार में अटके,
पित्रदेव बन भटकते रहना मज़बूरी है।
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जब तलक टकराव है अपने 2 अहम का 
दोनो के बीच फ़ासला भी एक मज़बूरी है। 
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अकूद सम्पदा जुटाली पाँच वर्षो में ही,
भ्रष्टाचार विरोधी भाषण नेताकी मज़बूरी है।
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क्या क्या बतावे, चाहत नहीं बुढ़ापेमें जीना,
कर्मों का भोग भोगते रहना भी मज़बूरी है ।
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - 
-लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला 

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 5, 2013 at 11:07am

आदमी के जीवन में मजबूरियां अनगिनत है और सदा से ही चली आ रही है आदरणीय बागी जी जैसे द्वापर में धर्मराज चौसर खेलना नहीं चाहते थे, फिर भी खेलना उनकी मज़बूरी थी । रचना की सराहना कर उत्साहित करने के लिए हार्दिक आभार आपका आदरणीय 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 4, 2013 at 8:31pm

वाह वाह, गिन गिन कर मज़बूरी का वर्णन किया है, बहुत ही सामयिक रचना , बधाई आदरणीय लडिवाला जी |

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 4, 2013 at 4:57pm

बिलकुल ठीक कहा आपने डॉ प्राची जी, एक ओर मजबूरियां है जो पीछा नहीं छोडती दूसरी ओर

आम आदमी सकून की तलाश में भटकता है । वास्तव में इसका कारण अज्ञानता है । सकूँ पाने के

लिए तो अध्यात्म की ओर जाना होगा, जिसकी ओर प्रेरित करने के लिए आपने हम जैसो के लिए

(खास तौरसे मुझ जैसे 60 वसंत पार) अध्यात्मक चिंतन मनन स्तम्भ प्रारंभ किया है ।

रचना पसंद करने के लिए हार्दिक बधाई 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 4, 2013 at 4:41pm

मजबूरियां ढूंढ ढूंढ कर लाये हैं इस रचना में आप आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी ...पर इन मजबूरियों के बिना भी आम आदमी को सुकून कहाँ.

सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 4, 2013 at 3:59pm

आपकी त्प्पनी दर्शाती है कि आप सकारात्मक विचार पसंद करते है।रचना पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार डॉ अजय खरे जी 

Comment by Dr.Ajay Khare on February 4, 2013 at 2:47pm

adarniy jadiwala ji aap nisandeh achha sochte he badia likhte he aap se prena milti he badhai

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 4, 2013 at 1:59pm

आपको रचना पसाद आई, मेरा प्रयास सार्थक हुआ, बहुत आभार आपका श्री राज शिरोमणि पाठकजी एवं मीना पाठकजी 

Comment by Meena Pathak on February 4, 2013 at 1:46pm
क्या क्या बतावे, चाहत नहीं बुढ़ापेमें जीना,
कर्मों का भोग भोगते रहना भी मज़बूरी है ।........ बहुत सुन्दर ... बधाई 
Comment by ram shiromani pathak on February 4, 2013 at 1:16pm

वाह वाह !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

हार्दिक  बधाई सर................

नहीं उठा सकता मै गाडी का खर्च, 
दहेज़ में बिटियाँ को देना मज़बूरी है ।
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घर की दहलीज पार कभी गया न बाहर,

अस्थियाँ लेकर हरिद्वार जाना मजबूरी है !

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