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कविता-मैं दधीची दान लो

जो सहा वो कहा
मौन है ये ज़ुबां
दर्द की इन्तेहाँ |

एक कली गयी कहाँ
थक गया बाग़बां
हमसफ़र चल रहा
रास्ता जल रहा |

किसके हाथ असलहा
कौन हाँथ मल रहा
आज है कल कहाँ
आँख में जल कहाँ
हर तरफ प्यास है
गाँव में नल कहाँ |

योजना मृगतृष्णा
नैतिकता हे कृष्णा
ज़ोर ज़बर चल रहा
फैसला टल रहा
लाल सूर्य ढल रहा
गर्म ग्रह गल रहा |

एक सवाल है खड़ा
किससे कौन है बड़ा
गर्भ क्यों पल रहा
चल रही मंत्रणा
मौन हैं पीढियां
स्वर्ग की सीढियां
सह रहीं यंत्रणा |

मुक्ति पथ है कहाँ
क्या वहाँ क्षितिज जहां |
मैं दधीची जान लो
मुझको मृत मान लो |

हो अभी नौजवाँ
लक्ष्य किधर और कहाँ
अपने मन ठान लो
लक्ष्य भेद जान लो |

काल चक्र चल रहा
सत्य है प्रबल अहा
शैल सा सुमन कहाँ
शब्द सी चुभन कहाँ |

रक्त का संज्ञान लो
मैं दधीची दान लो
मुझको मृत मान लो
हड्डियां धरो धरा
यत्न तुम करो ज़रा|
सूर्य रश्मि थाम लो
नियति चक्र मान लो |

कर्म फल मिल रहा
गांडीव हिल रहा
दिगदिगंत मौन हैं
अरुण कमल खिल रहा
नव प्रभात जान लो
मैं दधीची दान लो
मुझको मृत मान लो |

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on October 29, 2010 at 3:16pm
श्री राकेश जी एवं श्री नवीन जी कविता पसंद आयी आभार स्वीकारें | आप सबका स्नेह सृजन को प्रेरित करता है |

कृपया ध्यान दे...

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