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अपने विश्वास के साथ...

 

 

सारी बातें भूलाकर

तुम्हारे दिये हर दर्द का

तोहफ़ा बनाकर

मै उठती हूँ हर सुबह

एक नई उमँग के साथ

कि शायद...

हाँ शायद

पा ही लूँगी

जो खोया था

आज ही होगा अंत

इन दुखदायी पलों का

मगर

घेर लेती है मुझे

फ़िर वही

जानी-पहचानी सी

मुस्कुराहट

मुह टेढ़ा किये

सुनो!

तुम्हारे ये बहाने

बदलते क्यों नही?

मेरा विश्वास करो

विश्वास,मेरा...

मगर

घुट जाती है चीख

किसी गहरे कुँए के पानी सी

और मै

हाँ बस मै...

रह जाती हूँ दबी

दर्द की अनेक परतों के बीच

अपने विश्वास के साथ

उसी टेड़ी मुस्कुराहट के साथ॥

 

सुनीता शानू

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 18, 2011 at 5:51pm

घुट जाती है चीख

किसी गहरे कुँए के पानी सी

और मै

हाँ बस मै...

रह जाती हूँ दबी

दर्द की अनेक परतों के बीच

अपने विश्वास के साथ

 

बहुत ही खुबसूरत काव्य कृति, बधाई स्वीकार करे |

Comment by सुनीता शानू on September 17, 2011 at 12:02pm

धन्यवाद अश्विनी जी, मै प्रयास करूँगी और बेहतर लिख पाऊँ।...

 

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