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तरही ग़ज़ल नम्बर 2

नोट :-"तरही मुशायरे में जितनी ग़ज़लें शामिल हुईं, इस ग़ज़ल के क़वाफ़ी उन सबसे अलग हैं"

मफ़ऊल फ़ाइलातु मुफ़ाईल फ़ाइलुन

लेकर गई है हमको जिहालत कहाँ कहाँ
मांगी है तेरे वास्ते मन्नत कहाँ कहाँ

ये आज तेरे पास जो दौलत के ढेर हैं
सच बोल तूने की है ख़ियानत कहाँ कहाँ

अब तक भरी हुई थी जो तेरे दिमाग़ में
फैलाई है वो तूने ग़िलाज़त कहाँ कहाँ

तूने वतन को बेचा है अपने मफ़ाद में
होती है देखें तेरी मज़म्मत कहाँ कहाँ

फ़हरिस्त इसकी अब तो बताना फ़ुज़ूल है
हमने उठाई है ये हज़ीमत कहाँ कहाँ

आती है शर्म तुझको बताते हुए "समर"
तेरी बनी है इश्क़ में दुर्गत कहाँ कहाँ

___

मन्नत :- मान,नियाज़,भेंट
ख़ियानत :- ग़बन, धोका,फ़रेब, दग़ा
ग़िलाज़त :- गन्दगी
मफ़ाद :- फ़ायदा
मज़म्मत :- निंदा
फ़हरिस्त :- सूची
फ़ुज़ूल :- बेकार
हज़ीमत :- हार,शिकस्त
दुर्गत :- ख़राबी


--समर कबीर
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on August 7, 2017 at 2:53pm
जनाब रवि शुक्ला जी आदाब,ये सब आपका हुस्न-ए-ज़न है जनाब,ग़ज़ल में शिर्कत और दाद-ओ-तहसीन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on August 7, 2017 at 2:50pm
जनाब तस्दीक़ अहमद साहिब आदाब,सुख़न नवाज़ो के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ।
Comment by Samar kabeer on August 7, 2017 at 2:49pm
जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज'साहिब आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिए आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on August 7, 2017 at 2:47pm
जनाब सुरेन्द्र नाथ सिंह जी आदाब,सुख़न नवाज़ी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ।
Comment by Samar kabeer on August 7, 2017 at 2:46pm
जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और दाद-ओ-तहसीन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on August 7, 2017 at 2:44pm
जनाब रोहित जी आदाब,सुख़न नवाज़ी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ।
Comment by Samar kabeer on August 7, 2017 at 2:43pm
जनाब डॉ.आशुतोष मिश्रा जी आदाब,सुख़न नवाज़ी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ।
Comment by Samar kabeer on August 7, 2017 at 2:41pm
जनाब निलेश'नूर'साहिब आदाब,सुख़न नवाज़ी के लिये बहुत बहुत शुक्रिया ।
Comment by Ravi Shukla on August 6, 2017 at 12:52pm

आदरणीय समर साहब आदाब तरही ग़ज़ल की दूसरी पेशकश भी बहुत ही शानदार हुई है इसके लिए शेर दर शेर दिली मुबारकबाद कुबूल करें ।ऐसा लगता है हमारी सोच जहां खत्म होती है उसके आगे आप शुरू करते हैं इसीलिए नए-नए कवाफी के साथ एक और ग़ज़ल आपने हमारी प्रेरणा के लिए यहां पर रखी बहुत-बहुत शुक्रिया।

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on August 4, 2017 at 4:43pm
मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब आदाब ,बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई है ,दाद और मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें

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