For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

चलिये शाश्वत गंगा की खोज करें- द्वितीय खंड (1)

व्यथित  गंगा ज्ञानि से संबोधित है.

गंगा की व्यथा ने  ज्ञानि के हृदय को झजकोर दिया है. गंगा उसे बताती है मनुष्य की तमाम विसंगतियों, मुसीबतों, परेशानियों   का कारण उस का ओछा ज्ञान है जिसे वह अपनी तरक्की का प्रयाय मान रहा है.

इस ज्ञान ने उसे प्रकृति से दूर कर दिया है. वह प्रकृति को अपना लक्ष्य नहीं लक्ष्य का साधन मानता है.

पृथ्वि पर मानव के अपने स्वार्थमय कई लक्ष्य हैं. जैसे मन लुभावनी क्षणिक चकाचैंध से प्रेरित भौतिक प्रगति जिस के लिये वह प्रकृति की महत्वपूर्ण संपदा नदियों नालों के समीप अपने लिये सौंद्धर्य प्रसाधनों इत्यादि के बड़े बड़े उद्योग  लगाता है. उन से निकलता रासायणक ज़हर नदियों नालों को प्रदूषित करता है और पेय पदार्थों द्वारा वापिस  उसी के शरीर में प्रवेश कर रहा है.

और भी लक्ष्य हैं मानव के जैसे वह अध्यात्मिक उत्थान के नाम पर भौतिकी सुख व चकाचैंध भरे पूजा स्थल बनाना जो उस के तथाकथित ‘परमात्मा’ व ‘परमात्मा के अवतारों' के स्वर्ण गृह बन गये हैं.

उस का यह तथाकथित ‘परमात्मा’ उस की असुरक्षा की भावना से उपजा है. उस ने इस ‘परमात्मा’ को भी अपने व्यापार व भौतिक तरक्की का साधन बना लिया है.

इस सारे पचड़े में मनुष्य की बड़ी विसंगति  यही है कि वह अपने इस ‘परमात्मा’ से भी उसी तरह भयभीत है जिस तरह अपनी असुरक्षा की भावना से उपजे देवी देवों नि, राहु, केतु आदि से. नदियां भी उस के लिये इसी तरह भय का प्रतीक हैं, उन्हें देवियां  मानता है पर उन के जल के रासायणक नहीं भौतिक प्रभाव यानि बाढ़ इत्यादि से भयभीत है.

अपनी भौतिक व मानसिक तुष्टि  के लिये मानव के जो भी पृथ्वि पर लक्ष्य हों पर अभी तक प्रकृति की महत्वपूर्ण संपदायों को अपने व अपने बच्चों के भविष्य के लिये बचाना उस का लक्ष्य नहीं बना है.

इसी ओछे ज्ञान से मानव को निकालना और सही व ज्ञानोचित नुभूति का संप्रेष्ण करना अब ज्ञानि का लक्ष्य है. इस के लिये उस ने मानवीय अधिवासों में जा कर प्रवचन देने का मन बना लिया है.

प्रस्तुत श्रंखला उन्हीं प्रवचनों का काव्य रूपांत्र है....

 ज्ञानी का दूसरा प्रवचन

देश की भूमि  पर उतरी है गंगा,


स्वर्ग से,


बादलों के शिखर से.


मन की भूमि  पर उतरी है


वही गंगा ज्ञान की गंगा


अनुभूति के शिखर से.


बात तब की है जब गंगा केवल बादलों में बसी थी.


बादल जो मरू भूमि को छोड कर आगे निकल जाते थे.


उन का यह खेल सूखे मरू में बसने वाले समझ न पाते थे.


अनुभूति की गंगा भी मन को ऐसे ही चिढाती थी.


मन के मनन की तो पकड में न आती थी.


साधना व अभ्यास से कतराती थी.


अभ्यासरत मन को ...अभ्यासरत मानव को


तो मुंह न लगाती थी.


अभ्यासरत मन केवल स्वयं का पुजारी था


अभ्यासरत मानव केवल अहम् का पुजारी था


वह खोज को अहम् से इच्छा से आगे न ले जा पाता था.


अनुभूति की गंगा


केवल अनुभूति में बसी थी.


अनुभूति की गंगा तो


केवल पर्मानुभूति में बसी थी.


पर्मानुभूति का नियम पर्मानुभूति के ही अधीन था.


मन से परे, मनन से भी परे,


कहीं शून्य में लीन था.


मन की भूमि तो अहम् में गर्त थी


इसी मन को खोना अनुभूति की प्रथम शर्त थी.

(शेष बाकी)

Views: 597

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on April 2, 2013 at 9:18pm
धन्यवाद सौरभ पांडेय  जी, 
आप उचित कहते हैं 
"सूक्ष्म ज्ञान और उसका स्थूल पूरक. फिर दोनों का घालमेल !? समस्त विसंगतियों का यही मूल रहा है.'
बहुत कम शब्दों में आप ने पूरी ज्ञान प्रक्रिया का विवेचन कर दिया। सूक्ष्म  अगर केवल अनुभूति है तो शाब्दिक चित्रण उस का स्थूल विस्तार। कम्युनिकेशन उस की मानसिक तुष्टि। शायद इसलिए कविता को अशरीरी या पराभौतिकी कहा जाता है कि उस में symbols का इस्तेमाल होता है और वह दुसरे आयामों से मन भूमि में उतरती है। कविता अनुभूति का अनुभूति द्वारा संचार है। स्थूल व सूक्ष्म की इस जटिलता में स्थूल आगे बढ़ गया है और सूक्ष्म में मानव का  आकर्षण समाप्त हो गया है। भौतिक प्रकृति ही सब कुछ है इंसान ने यह स्वर्थः मान लिया है। मानसिक तुष्टि शरीरिक तुष्टि का विस्तार है अगर तो शारीर को संतुष्ट कर के मन आत्म की तुस्ती का उपचार किया जा रहा है। यह विसंगति तमाम विसंगतियों का प्रारंभ है, यह आप ने उचित कहा है।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 2, 2013 at 5:58pm

सूक्ष्म ज्ञान और उसका स्थूल पूरक. फिर दोनों का घालमेल !? समस्त विसंगतियों का यही मूल रहा है.

प्राणी प्रण कर अपने होने के अर्थ को ढूँढता हुआ परम तत्व को प्राप्त होता है या पाता है. किन्तु जिस सूचना और गणनाओं की साझेदारी को ज्ञान का पर्याय बनाया जा रहा है जिसमें तर्किकता का कोई विन्दु नहीं और इसीको बलात घुँटवाया जा रहा है उसने आज के जन को अन्नमयकोष से आगे सोचने से रोक दिया है. लाभ और लोभ के भौतिक स्वरूप से सम्मोहित जन कायिकता से आगे जा भी कहाँ पाता है अब ? न इसके लिए उचित वातावरण ही रहा दीखता है.

गंगा इसी अन्नमयकोष से होकर मानसिकतः उर्ध्व बढ़ने की अवधारणा है.

आपको सुनना रोचक है..

Comment by मोहन बेगोवाल on March 23, 2013 at 10:59am

डाक्टर साहिब , 

मेरी समझ के अनुसार  रचना में continuity दिखाई देती ,पहले हिस्सों में दिखाए गए सवालों के जवाब भी मिलते नजर आते हैं

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on March 22, 2013 at 11:27am

प्रिय केवल प्रसाद जी 

आप के सौहार्दपूर्ण प्रिय वचनों से अतियंत प्रसन्न हुआ हूँ 

आप ने बहुत हौसला बढाया है। मुझे संतुष्टि हुई कि   रचनाओं  को उनके सही परिपेक्ष उत्तम दृष्टि से पढने वाले हैं अभी।

मानता हूँ की रचना लम्बी है इसलिए मैं इसके छोटे 2 पार्ट्स बना कर प्रस्तुत कर रहा हूँ 

 मैंने गंगा (river ) का परदुषण ज्ञान गंगा (knowledge ) में प्रदूषण यानि अनचाहा ज्ञान जो हमारे बच्चों पर थोपा  जा रहा है मैंने दोनों की बात साथ साथ कर रहा हूँ।

मेरे समक्ष प्रश्न हैं जैसे :

क्या ज्ञान ;तकनीकी हो या अध्यात्मिक केवल मानवीय षोषण का ज़रीया बन रहा है?

क्या ज्ञान मानवीय मन को बदलने में सक्षम है या ज्ञान हो या हो हमारा मन अपने ढंग से चलता रहता है?

दुनिया मे लगातार ज्ञान वृद्धि होने के बावजूद ईर्छा, द्वेष आक्रोष, अपराध भी उसी रफ़तार से बढ़ते जा रहे हैं. क्या यह तथ्य ज्ञान की सीमा की ओर इशारा नहीं करता?

क्या ज्ञान प्रतिस्पर्धा (competition ) की भावना को बढ़ा रहा है?

क्या प्रतिस्पर्धा की भावना मानवी संसाधनों के अति उपयोग और पर्यावरण अधोगति का कारण नहीं बन रही?

क्या प्रतिस्पर्धा  जीवन में असुरक्षा की भावना को जन्म दे रही है जिस के चलते मनुष्य धर्म के बाहय् कर्मकांडीय रूप को जोर-षोर से अपना रहा है

क्या हमारे अध्यात्मवेता भी हमें तोता रटन कर्मकांडों में उलझा रहे हैं?

 

ऐसे प्रश्न   उनके  उत्तर किसी किसी रूप में गंगा ... में आएँगे 

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on March 22, 2013 at 11:12am

धन्यवाद  बृजेश कुमार सिंह (बृजेश नीरज)  जी 

आप ने  रचना को अति सुंदर शब्दों  में सराहा 
रचना लम्बी है कोशिश करूंगा कि उम्मीद पर खरा उत्तरूं 
कृप्या बनें रहें 
Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 22, 2013 at 10:04am

 आदरणीय श्रीडा0 स्वर्ण जे0 ओंकार जी, आपकी शाश्वत गंगा की खोज अत्यधिक प्रभाव पूर्ण एवं वर्तमान के परिवेश में एक कठिन तपस्या ही है जिसकी राह बड़ी दुर्गम व कठिनाइयों से भरी हुई है! आपने आज फिर एक भगीरथ जी जैसा ही तप करने का बीड़ा उठाया है। ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि इन दानव रूपी नेताओं के अकूत ज्ञान और शक्ति पर आप को विजयश्री आसिल हो। आदरणीय डाक्टर साहब जी जहाॅ मेरी आवश्यकता होगी में लेखनी सहित सदैव तत्पर हूं। आपको बहुज ढ़ेर सारी शुभ कामनाएं ।

Comment by बृजेश नीरज on March 21, 2013 at 11:41pm

ज्ञान की गंगा का प्रवाह बना हुआ है। अति सुन्दर! बधाई स्वीकारें!

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

अजय गुप्ता 'अजेय commented on बृजेश कुमार 'ब्रज''s blog post गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा
"ब्रजेश जी, आप जो कह रहें हैं सब ठीक है।    पर मुद्दा "कृष्ण" या…"
yesterday
बृजेश कुमार 'ब्रज' commented on Ravi Shukla's blog post तरही ग़ज़ल
"क्या ही शानदार ग़ज़ल कही है आदरणीय शुक्ला जी... लाभ एवं हानि का था लक्ष्य उन के प्रेम मेंअस्तु…"
Monday
बृजेश कुमार 'ब्रज' commented on बृजेश कुमार 'ब्रज''s blog post गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा
"उचित है आदरणीय अजय जी ,अतिरंजित तो लग रहा है हालाँकि असंभव सा नहीं है....मेरा तात्पर्य कि…"
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Ravi Shukla's blog post तरही ग़ज़ल
"आदरणीय रवि भाईजी, इस प्रस्तुति के मोहपाश में तो हम एक अरसे बँधे थे. हमने अपनी एक यात्रा के दौरान…"
Monday
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं
"आ. चेतन प्रकाश जी,//आदरणीय 'नूर'साहब,  मेरे अल्प ज्ञान के अनुसार ग़ज़ल का प्रत्येक…"
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - यहाँ अनबन नहीं है ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय गिरिराज भाईजी, आपकी प्रस्तुति पर आने में मुझे विलम्ब हुआ है. कारण कि, मेरा निवास ही बदल रहा…"
Monday
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं
"धन्यवाद आ. लक्ष्मण धामी जी "
Monday
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं
"धन्यवाद आ. अजय गुप्ता जी "
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-175
"आदरणीय अजय अजेय जी,  मेरी चाचीजी के गोलोकवासी हो जाने से मैं अपने पैत्रिक गाँव पर हूँ।…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-175
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी,   विश्वासघात के विभिन्न आयामों को आपने शब्द दिये हैं।  आपके…"
Sunday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-180

परम आत्मीय स्वजन,ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 180 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का…See More
Sunday
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-175
"विस्तृत मार्गदर्शन और इतना समय लगाकर सभी विषयवस्तु स्पष्ट करने हेतू हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ जी।…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service