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"दामादजी को छोड़ना चाहवे है, अरे! पति बिना भी कोई जगह होवे है औरत की।" पति को छोड़ मायके आयी बेटी को माँ समझाना चाह रही थी।
"माँ! मैं कोई भी काम कर अपनी बच्ची पाल लूँगीं लेकिन अब वापिस नही जाऊँगी।"
"ये क्या कह रही है तु छोरी, ऐसा आखिर क्या हो गया?"
बस माँ। मैं 'उस नशेबाज' को और बर्दाश्त नही कर सकती, सारा दिन बस पीना, हंगामा करना और.......।"
"तो क्या हुआ छोरी, तेरा बापू न पिये, मैंने तो न छोड़ दिया उसे।" माँ ने कुछ तमक कर बेटी की बात काट दी।
"हाँ माँ, नही छोड़ा तुने!" बेटी माँ की आँखो में झांकने लगी। "बस जलती रही... सुलगती रही..... राख के ढेर में कोयले की तरह।"
बेटी की आँखो में माँ के अतीत और अपने वर्तमान दोनो का दर्द झलकने लगा था।

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'विरेन्दर वीर मेहता' (मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Archana Tripathi on August 24, 2015 at 1:38am
आ.वीरेंदर जी बड़ी अच्छी लघुकथा के लिए कलम चलायी हैं आपने हार्दिक बधाई ।बेटी की -------झलकने लगा था यह पंक्तियाँ अनावश्यक सी लग रही हैं ।गौर अवश्य करियेगा ।यह मेरा निजी मत हैं ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 23, 2015 at 11:07pm

 सन्देश देती हुई इस लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय वीरेंदर जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 23, 2015 at 10:19pm

यही तो जागरूकता अपेक्षित है आज की लड़कियों में और आ भी रही है इसे पीढी का गेप कह लें या जागरूकता किन्तु सही है ऐसे जिन्दगी बर्बाद करने से | सार्थक सन्देश देती हुई इस लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई आ० वीरेंदर वीर जी |

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