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तेरे सुन्दर नैन, नैन में सागर तैरे।
उसमें डूबा चांद, चांद को दुनिया हेरे॥
मिला नहीं जब चांद, तुझे उपमा दे डाली।
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नैनों वाली॥

तेरे काले केश, अमावस जैसे लगते।
भटक गये सुकुमार, अलक में उलझे रहते॥
चांद अमावस साथ, अरे अद्भुत है आली।
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नैनों वाली॥

वीणा की झंकार, मधुर श्रवणों में घोले।
अरुण ओष्ठ पुट खोल, बैन जब- जब तू बोले॥
नहीं सुनूँ झंकार, लगे सब सूना खाली।
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नैनों वाली॥

धरे पयोधर वक्ष, कलश अमृत के लगते।
पी कर वय सुकुमार, पुष्ट तन मन से होते॥
करते हैं श्रृंगार, पयोधर तेरे आली।
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नैनों वाली॥

गालों का अरुणाभ, चकित सूरज को करता।
किन्तु चंद्र शीतल्य, कपोलों में खुद भरता॥
आह्लादित मन गात, रूप लावण्यों वाली॥
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by गिरिराज भंडारी on September 15, 2013 at 8:49pm

आदरणीय विन्ध्येश्वरी जी,  नारी रूप वर्णण का सुन्दर कित्रण किया आपने , अनुपम !!अदभुत !! बधाई !!

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on September 15, 2013 at 6:52pm

यह गीत तो किसी फिल्म में संगीत के साथ गाने लायक है। बधाई त्रिपाठीजी ।

Comment by annapurna bajpai on September 15, 2013 at 6:28pm

आह्लादित मन गात, रूप लावण्यों वाली॥
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥............... बहुत सुंदर आदरणीय विनय जी , बधाई इस सुंदर प्रस्तुति हेतु ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 15, 2013 at 5:38pm

सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें 

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