(१२२ १२२ १२२ १२२ १२२ १२२ १२२ १२२ )
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वफ़ा ढूंढते हो जफ़ा के नगर में यहाँ पर वफ़ा अब बची ही कहाँ है 
 बुझी है वफ़ा की मशालें दिलों से वफ़ा का नहीं कोई नाम-ओ-निशाँ है 
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 यहाँ राज करते हवस के पुजारी किसी की नहीं है मुहब्बत से यारी 
 इधर बेवफ़ाओं का लगता है मेला कोई बावफ़ा अब न मिलता यहाँ है 
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 इधर पैसा फेंको दिखेगा तमाशा अगर जेब ख़ाली मिलेगी हताशा 
 इधर है न रिश्ता न कोई सगा है फ़क़त पैसा होता धरम और इमाँ है 
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 यहाँ नाम-लेवा वफ़ा का न कोई वफ़ा की यहाँ सबने उम्मीद खोई 
 सजी है दुकानें यहाँ जिस्म की बस मुहब्बत की कोशिश हर इक रायगाँ है 
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 यहाँ महफ़िलों में गज़ब खीरगी है दिलों में समाई मगर तीरगी है 
 यहाँ अश्क देखे कहाँ है किसी ने लबों पर हँसी और दिल में फुगाँ है 
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 यहाँ रास आती बदन की फ़रोशी मगर दर्द देती दिलों की ख़मोशी 
 यहाँ दिन उदास और दिलकश है शामें यहाँ रात रोज़ाना होती जवाँ हैं 
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 अलग ये बसाई शरीफों ने दुनिया यहाँ लाई जाती किसी घर की मुनिया 
 फँसा इस क़फ़स में अगर इक परिंदा यहीं उसका घर है यहीं कारवाँ है 
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 बने औरतों के लिए जो इदारे सभी कागजों में मुक़द्दर सँवारे 
 मगर ये निज़ामत नहीं ग़ौर करती इसे फ़िक्र औरत की रहती कहाँ है 
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 खुले आम घूमें 'तुरंत' अब शिकारी कई बागबाँ बेचे कलियाँ कुँवारी 
 वतन है हमारा अब आज़ाद लेकिन पुरानी रिवायत जहाँ की तहाँ है 
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 गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी | 
 ३१/०५/२०१९
शब्दार्थ -रायगाँ =बेकार ,खीरगी=चकाचौंध ,तीरगी=अँधेरा 
 फ़ुग़ाँ =आर्तनाद ,इदारे=विभाग /संस्थाएं ,निज़ामत=व्यवस्था ,रिवायत =प्रथा
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
गिरिराज भंडारी जी आपकी हौसला आफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया | सादर नमन | तक़बूले रदीफ़ संज्ञान में तो था लेकिन शिल्प की दृष्टि से इस लम्बी बह्र में इग्नोर किया क्योंकि मुझे तीरगी को खीरगी से मिलाना था | वैसे अहमद फ़राज़ जैसे शायर ये मानते हैं कि तक़बूले रदीफ़ के लिए स्वर को देखना चाहिए उस दृष्टि से तीरगी है और फुगाँ है में अलग स्वर है | लेकिन आपकी बात को नज़रअंदाज़ भी नहीं कर रहा हूँ |
आदरणीय गिरधारी सिंह जी अच्छी ग़ज़ल कही है , दिली बधाईयाँ स्वीकार करें | पांचवे शेर में तकाबुले रदीफ दोष आ गया है .. संभव हो तो देख लीजिएगा |
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