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इक पुरानी ग़ज़ल

इक पुरानी ग़ज़ल से आप सब के साथ मैं भी अपने पुराने दिनों की याद कर रहा हूँ, ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 

कर्म के ही हल सदा रखती है कन्धों पे नियति 

पर कभी फसलें मेरी बोनें नहीं देती मुझे 
मेरी देहरी ही बड़ा होने नहीं देती मुझे 
पीर पैरों के खड़ा होने नहीं देती मुझे 
फिर वही आँगन की परिधि में बँट गया 
किन्तु सीमाएं मेरी खोने नहीं देती मुझे 
उधर पाबन्दी ज़माने की हैं हँसने पे मेरे 
इधर दीवारें मेरी रोने नहीं देती मुझे 
रोज़ सहता हूँ पराजय के अनेकों दंश फिर भी 
हठ ये सांसों की "अजय" मरने नहीं देती मुझे 

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Comment by shalini kaushik on November 27, 2012 at 12:06am

सुन्दर भावाभिव्यक्ति

 गुरु  पूर्णिमा  की   बधाई 

Comment by वीनस केसरी on November 26, 2012 at 11:49pm

अजय जी,
सुन्दर भावाभिव्यक्ति
ग़ज़ल विधा से प्रेरित इस रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 26, 2012 at 12:02pm

आदरणीय अजय जी 

इस रचना में निहित भाव बहुत सुन्दर हैं, इस हेतु आपको हार्दिक बधाई , पर यह रचना शायद ग़ज़ल के मानकों को संतुष्ट नहीं करती. 

कृपया ध्यान दे...

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