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Govind pandit 'swapnadarshi''s Blog (6)

हिन्दी दिवस - लघुकथा

उस दिन मैं हिन्दी दिवस के एक समारोह में शामिल होने के लिए शेयरिंग कैब में दिल्ली एयरपोर्ट से सिविल लाइंस जा रहा था। कैब में दो और सहयात्री सवार थे। वे दोनों पीछे की सीट पर और मैं फ्रंट सीट पर था। उन दोनों के बीच बातचीत शुरू हुई तो पता चला एक मद्रासी तो दूसरा राजस्थानी है। 

मद्रासी – तुम कहाँ का रहनेवाला है ? 

राजस्थानी – आई’m फ़्रोम जयपुर, एंड यू ? 

मद्रासी – मैं चेन्नै में रहता। तुम क्या करता है ? 

राजस्थानी – आई’m ए एग्जीक्यूटिव इन बैंकिंग…

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Added by Govind pandit 'swapnadarshi' on October 3, 2016 at 6:44pm — 4 Comments

उम्मीदों की कश्ती

टिमटिमाते तारे की रोशनी में

मैंने भी एक सपना देखा है ।  

टुटे हुए तारे को गिरते देखकर

मैंने भी एक सपना देखा है ।  

सोचता हूं मन ही मन कभी

काश ! कोई ऐसा रंग होता

जिसे तन-बदन में लगाकर

सपनों के रंग में रंग जाता ।

बाहरी रंग के संसर्ग पाकर

मन भी वैसा रंगीन हो जाता ।

सपनों से जुड़ी है उम्मीदें, पर   

उम्मीदों की उस परिधि को

क्या नाम दूं ? सोचता हूं तो 

मन किसी अनजान भंवर में

दीर्घकाल तक उलझ जाता…

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Added by Govind pandit 'swapnadarshi' on August 24, 2016 at 10:13pm — 4 Comments

अपने हिस्से की जिन्दगी

रूपम के हाथों में मेहंदी लग रही थी. दामिनी चाहती थी कि इसके लिए पार्लर से मेहंदी डिजाइनर बुलवा लें, किंतु रूपम ने साफ मना कर दिया था. उसकी जिद्द के आगे दामिनी को झुकना ही पड़ा. मेहंदी, कपड़े, मेक अप इत्यादि के मामलों में रूपम ने अपनी सहेलियों को ज्यादा तरजीह दी थी. अपने वादों के मुताबिक उसकी सहेलियां शादी के चार दिन पहले ही रूपम के घर पहुंच चुकी थी. अपने लहंगे और अन्य कपड़ों की खरीदारी वह नीलिमा के मुताबिक कर रही थी. नीलिमा उसकी बेस्ट फ्रेंड थी जो मुम्बई में रहकर फैशन डिजाइनिंग का कोर्स…

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Added by Govind pandit 'swapnadarshi' on November 11, 2015 at 11:21am — No Comments

मृगतृष्णा - कहानी

 

सरकारी नौकरी लगते ही रिश्तेवालों की सूची लम्बी हो गई थी. हर दिन एक नए रिश्ते लेकर कोई न कोई उसका घर चला आता था. अपनी मां से जब भी उसकी बातें होती वह लड़की के दादा परदादा से लेकर उसकी जनम कुण्डली तक बखान कर ही दम लेती. हर दिन रिश्ते के नए चेप्टर खुलते, उसके मन में इस बात को लेकर कुतूहल बना रहता था. उसे स्कूल के दिन याद हो आए थे. वहां भी हर रोज नए चेप्टर खुलते और नई-नई जानकारी मिलती थी. बात कुछ वैसी ही यहां पर भी उसके साथ हो रही थी. यहां भी हर रोज…

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Added by Govind pandit 'swapnadarshi' on September 26, 2015 at 10:23pm — 4 Comments

पाखण्डी समाज (कहानी)

सांझ का समय था. किसनलाल अपने बेलों को चारा खिलाने में मग्न था. मंद-मंद पूरबा चल रही थी. कुछ पल के लिए वह ठिठक गया और कमर सीधी करते हुए नथुना फूलाकर इधर-उधर सर घुमाते हुए कुछ पयान करने लगा. जोर-जोर से वह सांसें भर रहा था, सीआईडी कुत्ते की तरह जैसे किसी चीज का सुराग खोज रहे हो. हाँ, वह सुराग ही खोज रहा था. बासमती चावल की खीर की सुगंध का सुराग. खीर की सुगंध आ कहां से रही थी इसका अंदाजा लगाने का वह भरसक प्रयास कर रहा था.…

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Added by Govind pandit 'swapnadarshi' on September 6, 2015 at 11:00am — No Comments

लखिया

लखिया रामनारायण पाठक की पुत्री थी. रामनारायण पाठक पेशेवर शिक्षक थे, पर लक्ष्मी की उसपर विशेष कृपा नहीं थी. परिवार के भरण-पोषण के बाद वे बमुश्किल ही कुछ जोड़ पाते थे. उसकी आमदनी तो वैसे दस हजार मासिक थी, लेकिन खर्च भी कम कहां था ? हाथ छोटा कर वह जो भी जोड़ता पत्नी की दवा-दारू में सब हवन हो जाता था. उसका परिवार बहुत बड़ा नहीं था. वे लोग गिने-चुने चार सदस्य थे – दो लड़कियां और अपने दो. बड़ी लड़की लखिया आठ वर्ष की थी और छोटी मित्रा पांच की. उसकी पत्नी भगवती खूब धरम-करम करती किंतु, अपने…

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Added by Govind pandit 'swapnadarshi' on August 1, 2015 at 11:30pm — 10 Comments

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