दोहा पंचक. . . . . अपनत्व
अपनों से मिलता नहीं, अब अपनों सा प्यार ।
बदल गया है आजकल, आपस का व्यवहार ।।
अपने छूटे द्वेष में, कल्पित है व्यवहार ।
तनहा जीवन ढूँढता, अपनों का संसार ।।
क्षरण हुआ विश्वास का, बिखर गए संबंध ।
कहीं शून्य में खो गई, अपनेपन की गंध ।।
तोड़ सको तो तोड़ दो, नफरत की दीवार ।
इसके पीछे है छुपा, अपनों का संसार ।।
आपस में अपनत्व का, उचित नहीं पाखंड ।
रिश्तों को अलगाव का, फिर मिलता है दंड ।।
सुशील सरना /…
ContinueAdded by Sushil Sarna on May 7, 2025 at 4:41pm — 6 Comments
दोहा पंचक. . . . . नया जमाना
अपने- अपने ढंग से, अब जीते हैं लोग ।
नया जमाना मानता, जीवन को अब भोग ।।
मुक्त आचरण ने दिया, जीवन को वो रूप ।
जाने कैसे ढल गई, संस्कारों की धूप ।।
मर्यादा ओझल हुई, सिमट गए परिधान ।
नया जमाना मानता, बेशर्मी को शान ।।
सार्वजनिक अश्लीलता, फैली पैर पसार ।
नयी सभ्यता ने दिया, खूब इसे विस्तार ।।
निजी पलों का आजकल, नहीं रहा अब मोल ।
रहा मौन को देखिए, नया जमाना खोल ।।
सुशील सरना / 6-5-25
मौलिक…
ContinueAdded by Sushil Sarna on May 6, 2025 at 8:40pm — No Comments
दोहा दशम -. . . शाश्वत सत्य
बंजारे सी जिंदगी, ढूँढे अपना गाँव ।
मरघट में जाकर रुकें , उसके चलते पाँव ।।
किसने जाना आज तक, विधना रचित विधान ।
उसका जीवन पृष्ठ है , आदि संग अवसान ।।
जाने कितने छोड़ कर, मोड़ मिला वो अंत ।
जहाँ मोक्ष का ध्यान कर , देह त्यागते संत ।।
मरघट का संसार में, कोई नहीं विकल्प ।
कितनी भी कोशिश करो, ,बढ़ें न साँसें अल्प ।।
जीवन भर मिलता नहीं, साँसों को विश्राम ।
थम जाती है जिंदगी, जब हो अन्तिम शाम…
Added by Sushil Sarna on May 3, 2025 at 6:00pm — 6 Comments
दोहा सप्तक. . . . विविध
कह दूँ मन की बात या, सुनूँ तुम्हारी बात ।
क्या जाने कल वक्त के, कैसे हों हालात ।।
गले लगाकर मौन को, क्यों बैठे चुपचाप ।
आखिर किसकी याद में, अश्क बहाऐं आप ।।
बहुत मचा है आपकी. खामोशी का शोर ।
भीगे किसकी याद से, दो आँखों के कोर ।।
मन मचला जिसके लिए, कब समझा वह पीर ।
बह निकला चुपचाप फिर, विरह व्यथा का नीर ।।
दो दिल अक्सर प्यार में, होते हैं मजबूर ।
कुछ पल चलते साथ फिर, हो जाते वह दूर ।।
कहते हैं मजबूरियाँ,…
ContinueAdded by Sushil Sarna on May 1, 2025 at 12:52pm — 2 Comments
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