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ओ.बी.ओ. लखनऊ चैप्टर की मासिक गोष्ठी – एक प्रतिवेदन

 

“हिंदी दिवस” हर वर्ष हमारी चेतना को झिंझोड़ता हुआ आता है और हमारा ध्यान अपनी भाषा की ओर खींचता है. इस वर्ष 14 सितम्बर रविवार होने के कारण ओ.बी.ओ. लखनऊ चैप्टर की मासिक गोष्ठी हिंदी दिवस के महत्त्वपूर्ण अवसर पर उसी दिन आयोजित करने का निर्णय लिया गया था. लखनऊ के 37, रोहतास एंक्लेव, फैज़ाबाद रोड स्थित परिसर में आयोजित इस गोष्ठी में चैप्टर के नियमित एवं पंजीकृत सदस्यों के अतिरिक्त कुछ आमंत्रित रचनाकारों की सक्रिय उपस्थिति ने इस गोष्ठी को एक विशेष आयाम दिया.

आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी की अध्यक्षता में श्री मनोज शुक्ल ‘मनुज’ द्वारा संचालित उक्त गोष्ठी के दौरान पहले सत्र में एक परिचर्चा रखी गयी. विषय था हिंदी भाषा का वैश्विक परिदृश्य. इस परिचर्चा की प्रथम वक्ता के तौर पर सुश्री संध्या सिंह ने आँकड़ों की सहायता से अपने विचार रखते हुए कहा कि हिंदी नए रूप में सँवर रही है. वैश्विक परिदृश्य में यह कहना अनुचित न होगा कि हिंदी एक सुनहरे दौर से गुजर रही है. लेकिन अभी भी वह यू.एन.ओ. की स्वीकृत आधिकारिक भाषा नहीं बन पायी है जिसका हम सभी को इंतज़ार है.

दूसरे वक्ता थे डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव. उनके अनुसार आँकड़े कहते हैं कि विश्व में नब्बे करोड़ लोग चीनी भाषा बोलते हैं और एक अरब दो करोड़ लोग हिंदी बोलते हैं. आश्चर्य इस बात का है कि फिर भी हिंदी सबसे अधिक बोली जानी वाली भाषाओं की श्रेणी में दूसरे नम्बर पर आती है. देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के समय इस तालिका में हिंदी पाँचवें पायदान पर थी. अपने विस्तृत वक्तव्य में आपने कहा कि किसी भी भाषा को वैश्विक स्तर पर स्वीकृत होने के लिए आवश्यक है कि वह सम्प्रेषणीय हो एवं औद्योगिकी, विज्ञान, आचार-विचार आदि सभी क्षेत्रों में सर्वग्राही हो. तभी वह स्थायी रूप से हमारे सामने आएगी.

यहाँ श्री मनोज शुक्ल ने अपना मत व्यक्त किया कि बिना संस्कृत के ज्ञान के हिंदी समृद्ध नहीं हो सकती. साथ ही आंचलिक भाषाओं से भी शब्दों को लेकर हिंदी का शब्दकोष बढ़ाना पड़ेगा.

युवा वैज्ञानिक एवं रचनाकार श्री प्रदीप शुक्ल ने एक नए दृष्टिकोण से इस विषय को देखा. उनका मानना है कि हम हमेशा अपने से श्रेष्ठतर समाज की नकल उतारना चाहते हैं. अंग्रेज़ों के अधीन रहते हुए हमने उनको और बाकी पाश्चात्य को नकल करना सीख लिया. जब तक हम इस मनोवृत्ति से उबर नहीं पाते, हम अपनी राष्ट्रभाषा को उचित सम्मान नहीं दे सकते. श्री शुक्ल ने हिंदी की उन्नति के लिए दो उपाय भी सुझाए. वह चाहते हैं बाजारीकरण को बढ़ावा देना जिससे मजबूर होकर विश्व हिंदी का आदर करना सीखे. सौभाग्य से लगता है यह प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी है. दूसरे उपाय के रूप में वे धर्म को हिंदी में लाना चाहते हैं. व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि हमें संस्कृत भाषा की ओर, पौराणिक ग्रंथों की ओर जाना होगा. उन ग्रंथों को समझकर और उनके उपदेशों का अनुसरण कर विश्व को सरल हिंदी में समझाना होगा. यह ज़िम्मेदारी हिंदी के साहित्यकारों की है.

धर्म से हिंदी को नहीं जोड़ना चाहिए, ऐसा अभिमत व्यक्त करते हुए श्री मनोज शुक्ल ने कहा कि संस्कृत के सभी पौराणिक ग्रंथ का अनुवाद हिंदी में उपलब्ध हैं – हम पढ़ते नहीं हैं. सभी एकमत थे कि जो भी अनुवाद हिंदी में हों वे सहज और आज की भाषा में हों.

इस प्रकार एक बहुत ही सफल और विचारोत्तेजक परिचर्चा के बाद दूसरा सत्र श्री मनोज शुक्ल ‘मनुज’ द्वारा अवधी में रचित छंदमय सरस्वती वंदना से प्रारम्भ हुआ.

सुश्री संध्या सिंह ने छोटी-छोटी दो तीन कविताएँ सुनाई. जैसा कि लखनऊ का साहित्यिक समाज जानता है, उनके सहज सरल शब्द जीवन के गहन अर्थों को वहन करते हुए श्रोता को गहराई तक छू जाते हैं. यथा –

सुविधाओं की पगडंडी पर
भटके जनम-जनम
जितने जीवन में चौराहे
उतने दिशा भरम

अथवा,

मुस्कानो से ढँको पीर को
व्यर्थ जहाँ को कथा सुनानी

श्री प्रदीप शुक्ल की कविता और उनके काव्य पाठ का अंदाज़ ही कुछ अनोखा है. पहले ही उन्होंने कहा मेरी खामोशी को मेरी हार मत समझो. प्राची में उगते सूर्य की लालिमा से लेकर पश्चिम में ढलते सूर्य की लाली के बीच उन्होंने बहुत ही मनोहर ताना-बाना बुना. उनका प्रकृति चित्रण देखिए –

माँ के दुलार की लाली घर आँगन छा जाए
जब प्राची की गोद बाल दिनकर आ जाए
कलरव कर कर पंछी अपना सखा बुलाए
चलो दिवाकर खुले गगन क्रीड़ा हो जाए

कानपुर से आए पं नवीनमणि त्रिपाठी अपनी ओजस्वी रचनाओं के लिए जाने जाते हैं. हिंदी दिवस के अवसर पर वे कहते हैं – भाषा मौन होती है तो राष्ट्र मूक बनता है/ऐसी तस्वीर को न देश में सजाईए---. उनकी एक रूमानी ग़ज़ल का नमूना पेश है –

बजती रही करीब में शहनाई रात भर
बेदर्द तेरी याद बहुत आयी रात भर
जब लफ़्ज़ थे खामोश व जज़्बात थे जवाँ
वो छत पे बार बार नज़र आयी रात भर

सुश्री विजयलक्ष्मी मिश्रा ने कायरों को सावधान करते हुए कहा –

जो करे पीठ पे वार उस वार की ऐसी तैसी
जंग हाथों से हो, तलवार की ऐसी तैसी
क़द में छोटी हूँ मगर इतनी भी कमजोर नहीं
ज़िद पे आ जाऊँ तो दो चार की ऐसी तैसी

रूमानी और जज़्बाती रचनाओं का घेरा तोड़कर सुश्री कुंती मुकर्जी ने ‘मोनालिसा की मुस्कान’ का दार्शनिक तत्व प्रस्तुत किया

मैं तब भी स्तब्ध थी
और आज भी हूँ
बदलते सदियों के संग
एक ठहरा हुआ वक्त---

श्री केवल प्रसाद ‘सत्यम’ अपने प्रयोगों के लिए सुपरिचित हैं. आज कुछ नए अंदाज़ में सुनाया –

कल्पनाओं का सृजन
उत्साहवर्धन
योजनाएँ अल्पना सी
द्वार तक ही---

इस मंच पर पहली बार आए श्री राज लखनवी, जो कि शायर के तौर पर जाने जाते हैं, हिंदी काव्य रचना में भी सशक्त हैं – नारी हूँ मैं जीवन की परिभाषा हूँ और आदि से अनादि तक व्याप्त हो, ऐसा सुना करता हूँ जैसी रचनाएँ इसका परिचायक हैं.

वर्तमान प्रतिवेदक शरदिंदु मुकर्जी ने पहले अनुराधा शर्मा की कविता हिंदी का महत्त्व तथा अशोक बाजपेयी की कविता शब्द नहीं गाते का पाठ किया. फिर प्रार्थना की –

--- जब तुम आओ
अपने स्पर्श से मेरी अज्ञानता को झंकृत कर
नए शब्दों की
नए संगीत की
और हरित वेदना की रश्मि डोर पकड़ा देना
मैं उसके आलोक में
तुम्हारे आनंदमय चरणों तक
स्वयं चलकर आऊंगा, मेरे प्रियतम.

संचालन कर रहे श्री मनोज शुक्ल ‘मनुज’ अवधी तथा हिंदी दोनों में समान दक्ष हैं. अवधी में उनकी वाणी वंदना हम सुन ही चुके थे. अब उन्होंने सुनाया –

वक़्त का चेहरा घिनौना हो गया
आदमी अब कितना बौना हो गया

नवागत श्री आलोक शुक्ल और सुश्री गरिमा पाण्डेय की रचनाएँ सुनने के साथ ही आज के इस आयोजन में हमें अप्रत्याशित ढंग से बाँसी (सिद्धार्थनगर) से पधारे डॉ सुशील श्रीवास्तव ‘सागर’ जी का साथ मिला. अपने गीत और ग़ज़लों से उन्होंने सभी को मोह लिया –

सब कुछ यहीं पे छोड़ के जाना है ज़िंदगी
ग़म को खुशी के साथ निभाना है ज़िंदगी
वो पीर का पहाड़ हो या हर्ष का ‘सागर’
साँसों के तार छेड़ के गाना है ज़िंदगी

गोष्ठी की अंतिम प्रस्तुति के रूप में अध्यक्ष, डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी ने हिंदी को प्रणाम किया –

भारत माता के भाल मध्य शोभा जो उस बिंदी की जय
है देवनागरी पर्णों में तो पर्णों की चिंदी की जय
------
शत कोटि सपूतों के मुख से निर्झर बहती हिंदी की जय

गोष्ठी की समाप्ति पर संयोजक डॉ शरदिंदु मुकर्जी ने गोष्ठी की सफलता के लिए सभी को धन्यवाद दिया तथा आग्रह किया कि जो अब तक सदस्य के रूप में नहीं जुड़े हैं वे औपचारिक रूप से ओ.बी.ओ. लखनऊ चैप्टर से जुड़कर इस मंच को अपने साहित्यिक सहयोग द्वारा समृद्ध बनाएँ.

आज के आयोजन की परिसमाप्ति संगीत की सुर-लहरी में स्नात होकर हुई जब पं नवीन मणि त्रिपाठी जी ने बाँसुरी की मोहक तान छेड़ दी. यह पहला अवसर था कि हमें उनके इस विधा में पारंगत होने का प्रत्यक्ष प्रमाण मिल रहा था. हम सब उनके आभारी हैं.

प्रस्तुति : शरदिंदु मुकर्जी

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Replies to This Discussion

आदरणीय शरदिंदु जी

 आपकी प्रस्तुति से वह दृश्य साकार हो उठता है जिसका मै भी साक्षी रहा हूँ i सभी कवियों के योगदान को भली प्रकार प्रस्तुत किया गया है i परिचर्चाकारो की संख्या अभी कम लगती है i इस ओर कुछ अधिक प्रोत्साहन की आवश्यकता  प्रतीत होती है i  संयोजक जी का ग्रुप फोटो में न दिखना उपस्थित कवियो एवं साहित्यकारों की त्रुटि है i इसका परिमार्जन अगली गोष्ठी में अवश्य हो i सुन्दर प्रस्तुति  के लिये बधाई आदरणीय i  

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