For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की साहित्य-संध्या माह सितंबर 2020 : एक प्रतिवेदन - नमिता सुंदर

 ओबीओ लखनऊ चैप्टर की ऑनलाइन मासिक साहित्य-संध्या, 20 सितंबर 2020 को अपराह्न 3 बजे प्रारंभ हुई । इस माह की संगोष्ठी के अध्यक्ष का पद-भार आदरणीय श्री मृगांक श्रीवास्तव जी ने वहन किया I संचालन श्री मनोज शुक्ल के निपुण एवं सिद्धहस्त करों में रहा । गोष्ठी का शुभारंभ डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव द्वारा प्रस्तुत माँ सरस्वती की भाव-प्रवण वंदना से हुआ।

काव्य रसिक समवेत है, अद्भुत दिव्य समाज I

माते! अपनी   कच्छपी,  लेकर  आओ  आज II

सात्विक भावों से संचरित कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए, मनोज जी ने अध्यक्ष जी की स्वीकृति से संगोष्ठी के प्रथम सत्र का प्रारंभ किया। इस सत्र में आदरणीया डॉ. अर्चना प्रकाश जी की कविता "मृत्यु'" पर चर्चा हुई । इसका प्रतिवेदन अलग से तैयार कर ओ बी ओ के मुख्य पटल पर पोस्ट कर दिया गया है I कार्यक्रम के द्वितीय सत्र का प्रारम्भ करने के लिए मनोज ने सुश्री आभा खरे को आमंत्रित किया ।

जीवन की आपा-धापी से जूझते अक्सर ही हम एक अनाम बेचैनी जीते हैं। कुछ होता है जो भीतर ही भीतर सालता है पर हम ठीक-ठीक पकड़ नहीं पाते उसे। इसी बेचैनी, इसी खलबली को आभा जी ने बेहद अछूते प्रतिमानों के जरिये इतनी खूबसूरती से उकेरा है कि हम कविता पढ़ते नहीं वरन् उसे जीने लगते हैं। कविता प्रारम्भ होती है कुछ ऐसे – कई बार कोशिश की, मन की अनचाही उथल-पुथल को, खंगालने की, कि – ‘देखूँ तो, समझूँ तो, क्या है यह....’’ और फिर .....’’तकिये को इस तरफ से उठा कर उस तरफ रखते हुए...’’.तक पहुँचते पहुँचते वह बेचैनी हमारे भीतर पैठने लगती है। ‘’कुछ छूट गए साथ और खारिज की हुई तमाम बात...’’ का जब वो जिक्र करती हैं तो हमारे मन में टीस उठना लाजमी ही है I कविता के अंत में जब...’’देखा समय को भागते हुए, काँधे पर हालात का जाल लादे किसी बहेलिये की तरह.....’’ तो कैसा अनाम सा दर्द घुल गया मन में । सच, सरपट भागता समय आवाज तो बिल्कुल नहीं करता पर प्रतिध्वनियाँ हजार छोड़ जाता है पीछे । बिल्कुल ठीक कहा कौशाम्बरी जी ने इस कविता के विषय में कि - ’’मैं तो बार बार पीछे गयी किंतु मर्म समझ आया प्रस्तुति पूरी होने के बाद ...’’ सचमुच ऐसी ही है आभा जी की यह रचना बार- बार अपनी ओर खींचती हुई।

कौशाम्बरी जी की चंद पंक्तियों की कविता में सारा ब्रह्मांड सिमट आया, शाब्दिक एवं भावनात्मक दोनों रूपों में । दीन-दुनिया के समस्त आडम्बर छोड़ वीतरागी हो जाने की, उस विराट में ही घुल- मिल जाने की अपनी इस इच्छा में वे हमें भी अपने साथ बहाये लिए चलती हैं। ‘

प्रेरणा बन अंकुरित,/ उद्गार कुछ हों स्फुटित/ मानस पटल में/ चल पड़ूँ सब छोड़ माया जाल फिर मैं उस डगर में /जो मुझे आकाशगंगा में घुमाए/और मैं बन जाऊं उजला इक सितारा रात खेलूँ चन्द्रमा से/ सुबह सूरज संग मैं /सारी धरित्री घूम आऊँ।”

कौशाम्बरी जी की चाँद तारों की यात्रा से अंजना जी हमें वापस लाती हैं, अपनी धरती की सच्चाईयों के कठोर धरातल पर और सीधा साक्षात्कार कराती हैं हमारे समाज में पल-बढ़ रहे बेहिसाब कटु, कलुषित भावों से। अंजना जी की भाषा की क्लिष्टता, उनकी शब्द सम्पदा अनुपम है। कविता का शीर्षक ‘व्यसन’ ही हमें सतर्क हो बैठने को मजबूर कर देता है और फिर प्रारम्भ होती है कविता- “पनप रहा है प्रयास पंकिल ,स्वार्थहित सुख सम्मोह का ......” और “मचलता गरूर, लुभाता लाभांश, कुंठा, कलुष कोप का जागृत पैमाना....” पहुँचते-पहुँचते एक-एक शब्द की सच्चाई हमें भीतर तक झकझोर देती है और कवयित्री हमारी चेतना को जागृत करने के अपने प्रयास में पूर्णतया सफल होती हैं । कविता का समापन होता है सर्व कल्याण की राह दिखाती कवयित्री की इच्छा से... ‘’परिशीलित मन चाहे पावन, आतुर उत्कर्ष आजमाएँ, स्वाहा हो अपकर्ष भावना, तुच्छता समाहित हो जायें.......’’ यहाँ पाठक के हाथ स्वयमेव जुड़ जाते हैं ईश्वर से तथास्तु के वर की कामना से।

जीवन के मर्म, अर्थ, रहस्य को समझने की कुलबुलाहट हमें शांति से बैठने नहीं देती और अक्सर हम अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर तलाशने, काँधे पर झोला डाल निकल पड़ते हैं अनजान दिशाओं की यात्रा पर, लेकिन सारी भटकन के बाद आश्वस्ति भरी साँस लेते हैं वापस अपनी देहरी पर आकर। कुछ इसी तरह के भाव अपनी कविता में ले कर आयीं कुंती जी। कुंती जी के बिम्ब इतने सजीव, रेशमी और कोमल होते हैं कि उनसे गुजरते हुए हमें वही एहसास होता है जो बचपन में अपनी नन्हीं हथेली पर चिड़ियों के नाजुक, रोयेंदार पंखों को रख उन्हें हवा में हल्के हल्के थरथराते देखने में होता था। आप स्वयं ही अनुभव कीजिए- “चाँदनी रात में ओस की बूँदों का अंजान पत्तों पर गिरना, टपटप की आवाज को एकाग्रचित्त हो के सुनना, सुबह ओस की बूँदों को जाने-पहचाने पत्तों पर लुढ़कते देखना, सूरज की किरणों की चमक से ओस की बूँदों का हीरे सा चमकना, और हाथ लगाते ही बिखर जाना, जीवन एक सत्य भी, तरल भी....और ठोस होने का भ्रम भी..........” जीवन के मर्म का बिम्ब किस खूबसूरती से पिरोया है रात से भोर तक के बिंबों में। जो पत्ते रात को ‘अंजान’ थे, अंधकार छटते ही उनकी पहचान स्पष्ट हो गयी। और फिर कवयित्री निकल पड़ती हैं यात्रा पर...”अनंत आकाश, विस्तृत सागर, रेत कणों में समाया जीवन, पहाड़ नापना....” लेकिन अंत में ‘’झील में सिमटता आकाश’’. क्षमता है हमारे भीतर सब कुछ समाहित करने की किंतु फिर भी भटकते हैं हम दसों दिशाओं में, लेकिन जरूरी भी है यह “यायावरी  ...और गुलाबी शाम, चाय की चुस्कियाँ....आपस में गुफ्तगू....” की कीमत समझने के लिए।

पौराणिक प्रसंग है कि काग द्वारा सीता माता को आहत करने पर प्रभुवर राम उसे दंडित करते हैं। प्रत्यक्षतः यही घटना आधार है प्रदीप शुक्ल जी द्वारा गोष्ठी में प्रस्तुत की गयी कविता ‘कौवे की आँख का’, किंतु उस संदर्भ को आज पुख्ता होती जा रही जन-मानस की एक मानसिकता विशेष और विचारधारा से जिस प्रकार जोड़ा है उन्होंने, उससे कविता न केवल अत्यंत प्रासंगिक हो उठी है वरन् कवि की वृहद वैचारिक उड़ान का एक अनुपम दृष्टांत बन कर भी प्रस्तुत हुई है-

‘’यह कैसी लीला तुमने, बोलो लीलाधर कर दी I

एक दुष्ट की हरकत क्यों कर, पूर्ण कौम के सर मढ़ दी I

नर सी लीला करने को थे बाध्य, अतः क्या किया इसे,

क्या यही राम का न्याय, अनुसरित करते हैं अब मनुज जिसे ?“

इन पंक्तियों पर जब कविता समाप्त होती है, तो कुछ समय के लिए हम सब अपने भीतर कुछ टटोलने लगते हैं I प्रश्न-चिह्न आकार लेने लगते हैं। कविता में लास्य, माधुर्य मन मोह लेता है । स्फटिक शिला पर राम-सीता का वर्णन शृंगार की हृदयग्राही रस सलिला प्रवाहित कर जाता है । बिम्बों में उपमाएँ भी अत्यंत मनोहारी बन पड़ी हैं।

राम अंक में नयन मूँद सिय चरण भिगोये थीं जल में

बिन प्रत्यंचा धनुष पड़ा हो, वही शिथिलता थी तन में।“

उक्त पंक्तियाँ पढ़ते ही मात्र दृश्य ही नहीं भाव-भंगिमाएँ भी आँखों के सामने जीवंत हो उठती हैं और मछलियों का श्री चरणों से किल्लोल का दृश्य वर्णित करते हुए प्रदीप जी जब यह कहते हैं कि -श्रीलक्ष्मी के पैर दबातीं, करें ठिठोली सखियाँ ज्यों” तो मछलियों के समूह की कल्पना सखियों के रूप में कर पाठक के मन में गुदगुदी हिलोरें लेने लगती है। कवयित्री डॉ. अर्चना का पदार्पण हुआ उनकी कविता ‘जिंदगी’ के साथ। "पल-पल लुभाती दूर जाती जिंदगी, कभी धूप कभी छाँव सी जिंदगी,’’ से जिंदगी जो प्रारम्भ हुई तो वह कभी ‘’दुपहरी के घाम सी जली” कभी “श्याम की वंशी सी सतत बजी” और कभी “आँधियों में रोशनी सी जली”. जिंदगी की लय सी बहती अर्चना जी कीप कविता हमें जीवन के नाना रूपों के दर्शन कराती चलती है । “अपनों के व्यंग्य सी, मित्रों के हास्य,” जैसी पंक्ति तो अधरों पर स्मित ला देती है--- कितनी बारीकी से भेद उकेरा गया है । ‘’मरीचिका सी, मुट्ठी से फिसलती रेत सी............उमड़ते मेघ सी शोर ये मचाती I’’ जिंदगी अंततः ‘’फिर शांत शापित शीश ये नवाती” नियति को स्वीकार करती इति को प्राप्त होती है।

फिर बारी आती है कवयित्री नमिता सुंदर की, जो बहुत कुछ अभिव्यक्त करना चाहती हैं, समेटना चाहती हैं पर उन्हें लगता है कि वे अपने शब्दों में वह सामर्थ्य नहीं जगा पा रहीं कि भीतर का सब कुछ बाँट सकें सबसे....’’मैं चाहती हूँ, मेरे शब्द उगे, जैसे उगती है भोर, तोड़ती तिलिस्म अंधेरे का, बूँद-बूँद पोर -पोर............” और अंत में कहती हैं - ”...शब्द बैठे हैं देहरी पर, घुटनों में सिर डाल, भीतर से बाहर तलक, सेतु हुआ नहीं अभी तैयार।‘ इस कविता को सम्मान देते हुए डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने इसे ’अनन्यता लिए हुए शांत उच्छवास’ का गौरव दिया I कवयित्री संध्या जी को यह बहुत-बहुत सरस काव्य का उदाहरण लगा ।

शरदिंदु मुकर्जी जी की कविताएँ अधिकांशतः इतनी, गूढ़, गहन और आध्यात्म के ऐसे झीने से आवरण में लिपटी होती हैं कि वे विवेचना, टिप्पणी आदि के क्षेत्र से ऊपर खड़ी आह्वान करती हैं स्वयं को बूंद- बूंद भीतर आत्मसात करने का । अब यह हम पर निर्भर करता है, हम इसे कितना और किस स्तर पर आत्मसात करते हैं I आज की गोष्ठी में प्रस्तुत उनकी कविता माटी का प्याला भी अपने आप में समूचा जीवन दर्शन समेटे हैं-

मैं तो एक मिट्टी का प्याला, मतवाला.., क्षण भर का जीवन मेरा, मेरे साकी, तुम भर दो मुझमें वह हाला, पीने वाला , पी कर ऐसा झूम उठे, कुछ रहे न बाकी....”

यह एक ऐसा उत्सर्ग भाव है, जिसमें स्वयं को सिद्ध करने, प्रमाणित करने का उद्देश्य नहीं है, वरन् सर्वोपरि है बस देने का भाव ।

‘’बस तुमसे इतनी अर्जी है जीते जी, ठोकर भी गर मिले तो, उसके पैरों का--, जो मेरे उर का हाला पी कर मतवाला बना, फिर बन गया औरों का, गैरों का....”

यही तो समर्पण की पराकाष्ठा है । और कविता की अंतिम पंक्तियाँ- “जब कभी क्षितिज में, चाँद ढले औ लौट चले, डगमग डग कदमों से, वो दीवाने-, टुकड़े करके मुझको तुम देना दफना, मधुशाला की मिट्टी में कुछ मधु पाने।“ स्वयं को उड़ेल कर, खाली कर देने के बाद अंत तो उत्स में ही समा जाना है। माटी से माटी तक ही है जीवन वृत्त। जोशीलापन, गोष्ठी के संचालक मनोज शुक्ल जी की कविताओं की पहचान है।आज की कविता में उन्होंने मंचीय कविता-पाठ के क्षेत्र में रचनाओं के गिरते स्तर, साहित्य के बाजारीकरण, घटिया मानसिकता और उथलेपन पर पैनी चोट की है। अपने विशिष्ट आक्रामक तेवरों से ललकारते हुए चेतावनी दी है, और वह भी कविता की लयबद्धता को पूर्णतया बरकरार रखते हुए। बानगी प्रस्तुत है- ‘’कविताई में बंद लिफाफा बंद करेंगे बाबू जी/चोर चुटकुले बाजों को मिल खूब छरेंगे बाबू जी/ कविता की सारी परिभाषाओं को लल्लू जी लील चुके/थुक्का फजीहत, कविता चोरी और मसखरी कील चुके...। बीड़ी, सिगरेट, जूते चप्पल सब माई के मंच चढ़े, चढ़ते थे कवि माथ नवाकर उसी मंच को रौंद बढ़े.......” रसातल को जाती हमारी नैतिकता पर कवि का आक्रोश सर्वथा जायज ही नहीं वांछनीय भी है । कविता के अंतिम बंद में कवि ने आह्वान का बिगुल फूँका- ’’जो माँ के सच्चे आराधक बढ़कर वो आगे आयें/ जो सच है वो लिखें शब्द की मर्यादा में रह गाये / जनकल्यानी कविता का उद्धोष वरेंगे बाबू जी।“ हम परिवर्तन क्रांति की आशा से भर उठते हैं।‘ ‘बाबू जी’ को अपने भीतर उतारना हम सबका दायित्व है। जोश भरने में तो मनोज जी पूर्णतया सफल रहे।

तदोपरांत मंच पर स्वागत किया गया कवयित्री संध्या सिंह का । आज उन्होंने अंतर्द्वंद्व की बात की । संध्या जी के शब्दबंद, पदबंद बहुत अनूठे होते हैं । बात बिम्बों प्रतीकों की हो या शब्दों को सही स्थान पर बिठाने की, संध्या जी को महारत हासिल है ।

मेरे मन का एक विरोधी, मेरे भीतर छुपा हुआ है II 

“अनजाने, दुश्मन ने मेरा, जीना दूभर किया हुआ है II 

भीतर होती उठापटक की कितनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति है यह । अंतर्द्वंद्व की उखाड़-पछाड़ की बात करते हुए वे कहती हैं - ”साँप- नेवले लड़ते, खुद ही खुद से बैर निभाएं” कितनी सहजता से सटीक प्रस्तुतिकरण कर दिया भीतर के झंझावत का और फिर कविता की सबसे बेधक पंक्ति- ”बीच नदी, मेरे काँटे में, मेरा ही प्रतिबिम्ब फँस गया......” इतनी दूर तलक वाली मारक क्षमता के बिम्ब गढ़ती हैं कि जब- जब मथेगा जीवन में अंतर्द्वंद्व काँटे बिंधी मछरिया याद आ ही जायेगी।

डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव भाषा मर्मज्ञ तो हैं ही, कविता, गीत, छंद, ग़ज़ल हर विधा के शिल्प पक्ष पर भी आपकी गहरी पकड़ है। आज पटल पर उनकी कविता, “रोना है! परिहास नहीं है” प्रस्तुत हुई I

‘’धीरे धीरे अश्रु थमेंगे रोना है परिहास नहीं है I

पहले कुछ सुंदर देखा है,

फिर कोई सपना जागा है।

सारी रात नयन में बीती

मंदिर से संश्रय माँगा है।

मेरे मौन मुखर मत होना, यह तो वाग्विलास नहीं है।‘’

इस कविता में भाव तो प्रकर्ष को प्राप्त हैं पर अभी अभीष्ट को पाना सुनिश्चित नहीं है तो मौन ही रहना है । भावों की गहनता का संप्रेषण कितने चमत्कृत करते ढंग से स्व अलंकृत भाषा , गंभीर स्वर में उत्ताल तरंगों सी उठती, उत्कर्ष के सोपान चढ़ती कविता ब्रह्म से प्रस्फुटित होते ‘अनहद’ नाद की गूंज सी प्रतिध्वनित होती रहती है मन के गलियारे में बड़ी देर तलक। आज हमारे परिवेश में अवांछनीयताएँ चहुँ ओर से अपना जाल फैलाती नजर आती हैं । विचार विकृतियाँ, अनाचार, अत्याचार के संकट में है हमारा समाज। ऐसे में सुखद संभावनाओं की तलाश में चल पड़ने वाले, उठ खड़े होने वाले पौरुष को झकझोर कर जगाना अत्यंत आवश्यक हो गया है और जागृति की मशाल जलाना तो रचनाकार का धर्म होता है। उसी दायित्व निर्वहन के बोध से उपजी है, आलोक रावत जी की प्रस्तुत कविता

दीन दुर्बल को दिलाने के लिए उनका हक,

है बूँद बूँद को सैलाब बनाने की ललक  

आज चिंगारियों को दावानल बनाना है

तानाशाही का महल अब हमें जलाना है।“ 

किसी भी विपत्ति बेला में अपनी भुजाओं का पुरुषार्थ ही मार्ग प्रशस्त करता है। इसी विश्वास के चलते कवि की कलम से निकलता है-

”लोग निर्बल हैं खुद को सख्तजान कर लेंगें

लहुलुहान परिंदे उड़ान भर लेंगें।-------------------और जब आलोक जी आवाज देते हैं कि- हाथ की दोनों मुट्ठियों में उजाला भर लो, और जबरन सियाह रात के मुँह पर मल दो। तो क्रांति के लिए एक साथ उठी, बंधी मुट्ठियों से जैसे एक साथ विश्वास के सैकड़ों सूरज चमक उठते हैं मानो आमूलचूल परिवर्तन की भवितव्यता तो सम्पन्न हो कर ही रहेगी।

मिट गयीं ख्वाहिशें छोड़ दी जुस्तजू, हँस दिए

जब हकीकत से हो गए रूबरू, हँस दिए” 

यह है मतला आदरणीय भूपेन्द्र जी की ग़ज़ल का । जीवन की वास्तविकता समझ आते ही मनुष्य को अपनी ही नासमझी पर हँसी आती है । पता नहीं किस-किस चीज के पीछे भागते रहते हैं जिंदगी भर, कितने गिले-शिकवे पाले रहते हैं पर सब बेमानी है I यह बहुत बाद में समझ आता है ।

थी रखीं दूरियाँ हमने जिनसे बुरा जान कर

पाया जब अपने जैसा हुबहु, हँस दिए।” 

“बुरा जो देखन मैं चला” इस शाश्वत सत्य से हम सब परिचित हैं पर अमल कर पाना बहुत मुश्किल है। बाकी ग़ज़ल इस प्रकार है -

लड़ न पाया कभी अपनी कमियों से जो भी बशर,

जब किसी ने कहा है उसे जंगजू, हँस दिए।

ये तेरा ये मेरा सोच कर जो लड़े उम्र भर,

जब ये समझे कि एक ही मैं या तू, हँस दिए।

मिल गयी है खुशी शून्य हमको यहीं बैठ कर,

सोच कर ये कि ढूँढ़ा किये कूबकू, हँस दिए।

इस खुशी में तो कबीर का ईश्वर झलक गया ‘’मोको कहाँ ढूँढ़े रे बंदे....’’

अंतिम प्रस्तुति गोष्ठी के अध्य़क्ष श्री मृगांक जी की थी I हम सब इनका बेसब्री से इंतजार भी कर रहे थे । नाना प्रकार की भावनाओं, सघन-गहन अनुभूतियों में ऊभ-चूभ होते हमें भी मुस्कुराने, हँसने की तलब लगने लगी थी और मृगांक जी ठहरे हमारे समूह के इकलौते ऐसे रचनाकार जिनके तंज, चुटकियों के बिना हमारी गोष्ठियाँ फीकी रहती हैं। हम सब अपनी अपनी बात कहते हैं और मृगांक जी हम सबके लिए कहते हैं, जी हाँ हम सबके चेहरे पर मुस्कुराहट लाने के लिए और सब जानते हैं कि यह कितना कठिन काम होता है और वह भी ऐसे समय में जब आदमी खुद अपने आप से ही डरा हो I  मृगांक जी हमें कभी निराश नहीं करते । उनका यह सामायिक व्यंग्य के इस सत्य का प्रमाण है –

मुंबई में चाहे अपना घर तुड़वाना,

अब बीएमसी फ्री में तोड़ देगा।

इच्छुक लोग ट्वीट करें,

उद्धव तू क्या कर लेगा............

और फिर हास्य बिखर गया जब ----

एक और अभिव्यंजना जिसने दिल मोह लिया, इस प्रकार थी -

आज अर्द्धांगिनी अच्छे मूड में थीं

बोली मैं तुम्हारे लिए

अबकी बार निर्जल व्रत रखूँगी

मैंने कहा व्रत की क्या जरूरत है

सीधे मुंह बात किया करो

मेरी कुछ बातें मानों, थोड़ा सम्मान किया करो

और निर्जल व्रत से तो , मौन व्रत ज्यादा सही है

उन्होंने कुछ देर सोचा, फिर बोलीं...नहीं जी

इस सब में बहुत झंझट है, मैं तो यह व्रत ही रखूँगी।

इस सरस रचना पाठ के बाद औपचारिक रुप से गोष्ठी समापन की घोषणा हुई और हम सबने हँसते-हँसाते एक-दूसरे से विदा ली।

       

(मौलिक/अप्रकाशित )

Views: 239

Reply to This

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

पूनम की रात (दोहा गज़ल )

धरा चाँद गल मिल रहे, करते मन की बात।जगमग है कण-कण यहाँ, शुभ पूनम की रात।जर्रा - जर्रा नींद में ,…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी posted a blog post

तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी

वहाँ  मैं भी  पहुंचा  मगर  धीरे धीरे १२२    १२२     १२२     १२२    बढी भी तो थी ये उमर धीरे…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल -मुझे दूसरी का पता नहीं ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय लक्ष्मण भाई , उत्साह वर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार "
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-176
"आ.प्राची बहन, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-176
"कहें अमावस पूर्णिमा, जिनके मन में प्रीत लिए प्रेम की चाँदनी, लिखें मिलन के गीतपूनम की रातें…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-176
"दोहावली***आती पूनम रात जब, मन में उमगे प्रीतकरे पूर्ण तब चाँदनी, मधुर मिलन की रीत।१।*चाहे…"
Saturday
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-176
"स्वागतम 🎉"
Friday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

१२२/१२२/१२२/१२२ * कथा निर्धनों की कभी बोल सिक्के सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के।१। * महल…See More
Thursday
Admin posted discussions
Jul 8
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 169

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
Jul 7
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा
"धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी "
Jul 7
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी "
Jul 7

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service