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गज़ल - बेटों से कहीं ज्यादा मैं बेटी की तरफ हूं

सोने की चमक छोड़ के मिट्टी की तरफ हूं
बेटों से कहीं ज्यादा मैं बेटी की तरफ हूं

तुम लोग तो जालिम के तरफदार हो लेकिन
मैं आज भी इस देश में गांधी की तरफ हूं

जब साथ दिया मैंने किसी अहले सितम का
एहसास हुआ मुझको मैं गलती की तरफ हूं

आंखो को मेरी ख्वाब ना दौलत के दिखाओ
मैं भूख से बेचैन हूं रोटी की तरफ हूं

मैं डूबने दूंगा ना गरीबों का सफीना
तूफां के मुकाबिल हूं मैं मांझी की तरफ हूं

ये शहर का माहौल मुबारक हो आपको
मैं गांव का बाशिंदा हूं बस्ती की तरफ हूं

नुसरत मेरी ग़ज़लें भी मोहब्बत से भरी हैं
गौतम से मुझे प्यार है चिश्ती की तरफ हूं

कुमार नुसरत
मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by Afroz 'sahr' on September 13, 2017 at 4:55pm
आदरणीय कुमार नुसरत जी बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल कही है!शेर दर शेर दाद कुबूल करें!
Comment by Samar kabeer on September 13, 2017 at 2:34pm
जनाब कुमार नुसरत साहिब आदाब,पहली बार आपकी ग़ज़ल से रूबरू हुआ हूँ,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

'जब साथ दिया मैंने किसी अह्ल-ए-सितम का'
इस मिसरे में 'अह्ल-ए-सितम'यानी सितम करने वाले,इस लिहाज़ से ये बहुवचन का सीग़ा है, इसलिये 'किसी'शब्द को "कभी"करना उचित होगा ।
चौथे और पांचवें शैर में 'ना'को "न" कर लें ।
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