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कोयल दीदी! कोयल दीदी! मन बसंत बौराया।
सुरभित अलसित मधु मय मौसम, रसिक हृदय को भाया॥

कोयल दीदी! कोयल दीदी! वन बंसत ले आयी।
कूं कूं उसकी बोली प्यारी, हर जन मन को भायी॥

कोयल दीदी! कोयल दीदी! बागों में फूल खिले।
लोभी भौंरे कलियों का भी, रस निर्दय चूस चले॥

कोयल दीदी! कोयल दीदी! साजन घर को जाओ।
मुझ विरहा की विरह वेदना, निष्ठुर पिया सुनाओ॥

कोयल दीदी! कोयल दीदी! कू कू करके गाए।
जग में मीठी बोली अच्छी, राग द्वेष मिट जाए॥

कोयल दीदी! कोयल दीदी! तुम हो भोली भाली।
तेरी अंडा कौआ खाये, उसकी कर रखवाली॥

कोयल दीदी! कोयल दीदी! काला कौआ आया।
कांव-कांव का शोर मचाये, सबकी नींद उड़ाया॥

कोयल दीदी! कोयल दीदी! कौआ काला काना।
धूर्त बहुत मक्कारी उसमें, होता बड़ा सयाना॥

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 22, 2013 at 9:29pm

छंद रोचक लगे, बधाई श्री बिन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी जी 

Comment by ram shiromani pathak on March 22, 2013 at 2:38pm

वाह आदरणीय......

कोयल दीदी! कोयल दीदी! कू कू करके गाए।
जग में मीठी बोली अच्छी, राग द्वेष मिट जाए॥

....सुंदर रचना.......


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 22, 2013 at 12:41pm

प्रिय विन्ध्येश्वरी जी, बसंत के मौसम में कोयल की बोली की मिठास भरी इस रचना के लिए बहुत बहुत बधाई
इस रचना से आप हमारे बाल साहित्य को संमृद्ध करते तो वहां संग्रह में बच्चों के लिए  इतनी रोचक रचना सुलभ हो जाती ...
दो पदों पर मुझे संशय है ....
1. कोयल दीदी! कोयल दीदी! बागों में फूल खिले।
लोभी भौंरे कलियों का भी, रस निर्दय चूस चले॥ ..... क्या सार छंद में पद के अंत का कोइ विधान है, जैसे दो गुरु, यह लघु गुरु? यह मैं अपनी जानकारी के लिए पूछना चाहती हूँ .
यदि नहीं है , तो भी अन्य  पदों की तरह उपरोक्त पद का अंत भी दो गुरु से करिए तो रचना का समुच्चय में प्रवाह बहुत सुन्दर लगेगा.
2. कोयल दीदी! कोयल दीदी! काला कौआ आया।
कांव-कांव का शोर मचाये, सबकी नींद उड़ाया॥ ..... यहाँ सबकी नींद उड़ाया कुछ त्रुटिपूर्ण लग रहा है , इसे 'आये उडाये' के तुकान्त रख कर देखिये

सस्नेह

Comment by बृजेश नीरज on March 21, 2013 at 6:59pm

बहुत सुन्दर!

Comment by राजेश 'मृदु' on March 21, 2013 at 4:28pm

वाह आदरणीय, सुंदर रचना । ललित छंद का मौसम और आपकी ललित लेखनी, आनंद आ गया, सादर

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