पत्थरों के शहर में शीशे का घर मेरा भी है।
खौफ़ में साये में जीने का हुनर मेरा भी है॥
क़त्ल, दहशत, बम धमाके, हैं दरिंदे हर तरफ,
वहशतों के दौर में मुश्किल सफ़र मेरा भी है॥
देखना है कब तलक लेगा मेरा वो इम्तहान,
प्यार की बाज़ी में सब कुछ दांव पर मेरा भी है॥
मुड़ के अब तो देखने की तुमको ही फुर्सत नहीं,
कारवां के साथ तेरे एक सर मेरा भी है॥
उम्रभर रोती हैं आँखें बच के रहिए इश्क़ से,
ये तजुर्बा था किसी का अब मगर मेरा भी है॥
हर तरफ सहरा है रस्ते गुम हैं मंज़िल लापता,
और उसपे बेख़बर अब राहबर मेरा भी है॥
हो गया है क़त्ल उसका चुप रही इंसानियत,
जब परिंदे ने कहा के ये शज़र मेरा भी है॥
तुझको दुनिया चाँद से तशवीह देती है मगर,
इस हंसीं रुख़सार पर कुछ तो असर मेरा भी है॥
इश्क़ के मारों में “सूरज” तू अकेला ही नहीं,
हुस्न के बाज़ार में खूने-जिगर मेरा भी है॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
सौरभ जी सादर नमस्कार ! आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया मिली यही क्या कम है...लेट लतीफ़ तो हो ही जाता है....ग़ज़ल आप के दिल तक पहुंची ...आपकी दाद मिली अच्छा लगा। साभार
डॉक्टर साहब.. बधाई-बधाई-बधाई !
सारा कुछ इस मुआफ़ी के साथ कि आपकी ग़ज़ल पर देर से पहुँच पा रहा हूँ.
सारे शेर आपकी शैली को संतुष्ट करते हुए हैं. लेकिन इस शेर को विशेष रूप से कोट कर रहा हूँ -
तुझको दुनिया चाँद से तशवीह देती है मगर,
इस हंसीं रुख़सार पर कुछ तो असर मेरा भी है॥ .. . . अह्हाह !
दिल जीत लिया, आदरणीय भाई आपने.. .
जवाहर भाई और संदीप जी आप दोनों का हौसला आफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ...
साभार सूरज
वाह सर जी वाह
अभी इसी जमीं पे वीनस सर जी ग़ज़ल पढ़ कर आ रहा हूँ
आपने भी कमाल किया है साहब
इक इक शेर तराशा हुआ
हर शेर पे दाद क़ुबूल कीजिये सर जी
इश्क़ के मारों में “सूरज” तू अकेला ही नहीं,
हुस्न के बाज़ार में खूने-जिगर मेरा भी है॥
वाह वाह डॉ. साहब, क्या बात कही है!
राजेश जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया।
बहुत ही अच्छी गज़ल कहीं है आपने डॉ0 साहब, दिली दाद
डॉ प्राची जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया।
ब्रजेश जी, सतवीर जी दिनेश और राम शिरोमणि जी आप सभी की दिली दाद मिली और हौसला आफजाई किया इसलिए आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ ।आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरी भी मेहनत सार्थक हुई। आप सभी का पुनः आभार !
आदरणीय डॉ. सूरज बाली जी,वाह क्या बात! बहुत बेहतरीन!
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