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अनायास
तरंगित कल्‍मषों
बेचैन बुदबुदों के आवर्त से दूर
किसी निविड़ एकांत में
जब समस्‍त दिशाएं खो चुकी हों
अपनी पगध्‍वनि
सारे पदक्षेप
और तिरोहित हो चुके हों
निष्‍ठुर विमर्श के सारे आर्तनाद,
अपनी सारी भभक सारी तपिश
और साथ लेकर अपने
सारे चटकीले रंग 
आना तुम भी
बस एक बार अनायास
ताकि भव्‍य हो उठे
फिर से
मेरा प्रासाद

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Comment

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Comment by राजेश 'मृदु' on November 2, 2012 at 1:30pm

आप सबका सादर आभार


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 2, 2012 at 11:04am

भाई राजेश जी, बहुत सुन्दर भाव .. अच्छी प्रस्तुति .. .

शुभ-शुभ

Comment by Vinita Shukla on November 2, 2012 at 8:49am

प्रभावी और सुन्दर अभिव्यक्ति पर बधाई.

Comment by राज़ नवादवी on November 1, 2012 at 9:42pm

बहुत खूब राजेश जी! 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 1, 2012 at 9:28am

आगत का स्वागत करने हेतु प्रतीक्षारत मन से निकली हुई कविता पर बधाई स्वीकार करें राजेश कुमार झा जी |

कृपया ध्यान दे...

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