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थकन भले ही देह में, किन्तु न माने हार
स्वर्ग श्रम से नित करे, वह नीरस संसार।१।
*
लहू देह से बन बहे, जिसके पलपल स्वेद
जग में बाँटे  हर्ष  जो, सब  से  लेकर खेद।२।
*
कर्मलीन जो हर समय, दिवस रात्रि में जाग
जगने  देते  पर  नहीं, शोषक  उस का भाग।३।
*
श्रम से उस के  हो  गये, चन्द  लोग धनवान
जिसकी हालत को कहे, जग दोषी भगवान।४।
*
हिस्से में ले जी रहा, भले भूख मजदूर
गाली, लाठी, गोलियाँ, मिलें उसे भरपूर।५।
*
गुजर किया मजदूर ने, पाकर भी कम रेट
उसे चूसकर ना  भरा, धनपतियों  का पेट।६।
*
गाथा उसके शिल्प  की, कहे भले इतिहास
लेकिन उसके नाम का, कहीं नहीं अहसास।७।
*
जग को दे नव रूप जो, कंकड़ - पत्थर जोड़
दुख को पर  पाया  नहीं, निज जीवन से तोड़।८।
*
दुष्कर गिरि को काटकर, निर्मित करता राह
लेकिन लेता कौन  है, उस के  दुख की थाह।९।
*
काँटों पर चल बाँटता, सबको सुख के फूल
रोटी पा  दो जून  की, हर  दुख  जाता भूल।१०।
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी " मुसाफिर"

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 29, 2023 at 5:54am

आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।

निवेदित पंक्ति को यूँ देखें - स्वर्ग सरीखा नित करे, वह नीरस संसार।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 16, 2023 at 12:46am

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी बहुत बढ़िया दोहे हुए हैं बधाई सादर 

इस पंक्ति पर पुनर्विचार निवेदित है-//स्वर्ग श्रम से नित करे, वह नीरस संसार।१।//

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