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मैं और आगे बढ़ते जाती हूँ

दिन-प्रतिदिन स्वयं में ही ध्वस्त हो

विच्छेद हो कण-कण में बिखर जाती हूँ

आहत मन,थका तन समेटे दुःसाध्यता से

तिमिर के आवरण में स्वयं को

स्वयम ही लपेटे जाती हूँ

 

निर्झर बहते हैं फिर अश्रु  नैनों से

कटु विषाद ह्रदय में है गहराता

अवसाद ,अवनमन और अस्पष्टता में

डूबते चिंतित मानस के संग-संग

मैं भी डूबे जाती हूँ

 

किन्तु जाने कहाँ से उदित होती है 

धधकते हिर्दय के भीतर से ही  कहीं

तप्त, समाघाती, जीवटता से भरी प्रदीप्ति

 थाम जिसे मैं हर कटु  परिस्थिति से

विजयी हो उभर  आती हूँ

 

समेट स्वयं को चारों और से

मैं फिर पथ पर आगे बढ़ जाती हूँ

नित जुड़ती हूँ नित बिखरती हूँ

क्षण क्षण के  हर संघर्ष में

      मैं और आगे बढ़ते जाती हूँ      

 

 

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on March 9, 2011 at 1:54pm
अच्छी प्रभाव्पूर्ण रचना बधाई और शुभकामनाएं |
Comment by Venus on March 9, 2011 at 12:10am
aap sab ka tah e dil se shukriya

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 8, 2011 at 8:13pm
महिला दिवस पर नारी संघर्ष को उकेरती एक बेहतरीन रचना है वीनस जी , संघर्ष ही जीवन है फिर संघर्ष से क्या घबराना , एक सुंदर काव्य प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें |

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